एक गोवावासी की सम्पत्ति पर विचार करते समय सर्वोच्च न्यायालय ने गोवा राज्य की इसलिए प्रशंसा की कि वहाँ समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) लागू है. गोवा को एक चमकीला उदाहरण करार देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के निर्माताओं ने आशा की थी कि देश को एक समान नागरिक संहिता मिलेगी, किन्तु ऐसी संहिता बनाने कोई प्रयास नहीं किया गया राज्य नीति निर्देशक तत्त्व (जो अनुच्छेद 36 से अनुच्छेद 51 तक हैं) के अनुच्छेद 44 में लिखा है कि देश को भारत के सपूर्ण क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास करना चाहिए.
समान नागरिक संहिता अथवा समान आचार संहिता का अर्थ एक पंथनिरपेक्ष (सेक्युलर) कानून होता है जो सभी पंथ के लोगों के लिये समान रूप से लागू होता है। दूसरे शब्दों में, अलग-अलग पंथों के लिये अलग-अलग सिविल कानून न होना ही 'समान नागरिक संहिता' की मूल भावना है। समान नागरिक कानून से अभिप्राय कानूनों के वैसे समूह से है जो देश के समस्त नागरिकों (चाहे वह किसी पंथ क्षेत्र से संबंधित हों) पर लागू होता है। यह किसी भी पंथ जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है।
संविधान निर्माण करते वक़्त बुद्धिजीवियों ने सोचा कि हर धर्म के भारतीय नागरिकों के लिए एक ही सिविल कानून रहना चाहिए. इसके अन्दर आते हैं:—
भारत का संविधान, देश के नीति निर्देशक तत्व में सभी नागरिकों को समान नागरिकता कानून सुनिश्चित करने के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करता है। हालाँकि इस तरह का कानून अभी तक पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका है। गोवा एक मात्र ऐसा राज्य है जहाँ यह लागू है।
समान नागरिक संहिता वाले पंथनिरपेक्ष देश
विश्व के अधिकतर आधुनिक देशों में ऐसे कानून लागू हैं। समान नागरिक संहिता से संचालित धर्मनिरपेक्ष देशों की संख्या बहुत अधिक है:-जैसे कि अमेरिका, आयरलैंड, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की , इंडोनेशिया, सूडान, इजिप्ट, जैसे कई देश है जिन्होंने समान नागरिक संहिता लागू किया है।
व्यक्तिगत कानून
भारत में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध के अंतर्गत आते हैं, जबकि मुस्लिम और ईसाई के लिए अपने कानून हैं। मुस्लिमों का कानून शरीअत पर आधारित है; अन्य धार्मिक समुदायों के कानून भारतीय संसद के संविधान पर आधारित हैं।
इतिहास
मैं व्यक्तिगत रूप से समझ नहीं पा रही हूं कि क्यों धर्म को इस विशाल, व्यापक क्षेत्राधिकार के रूप में दी जानी चाहिए ताकि पूरे जीवन को कवर किया जा सके और उस क्षेत्र पर अतिक्रमण से विधायिका को रोक सके। इन सब के बाद, हम क्या कर रहे हैं इस स्वतंत्रता के लिए ? हमारे सामाजिक व्यवस्था में सुधार करने के लिए हमें यह स्वतंत्रता हो रही है, जो असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है, जो हमारे मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष करते हैं। "महिलाओं के खिलाफ होने वाले भेदभाव को दूर करने के लिए बने कानून में औपनिवेशिक काल के कानूनों में संशोधन किया गया। इस कानून के कारण धर्मनिरपेक्ष और मुसलमानों के बीच खाई और गहरी हो गई। वहीं, कुछ मुसलमानों ने बदलाव का विरोध किया और दावा किया कि इससे देश में मुस्लिम संस्कृति ध्वस्त हो जाएगी।“
यह विवाद ब्रिटिशकाल से ही चला आ रहा है। अंग्रेज मुस्लिम समुदाय के निजी कानूनों में बदलाव कर उससे दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहते थे। हालाँकि विभिन्न महिला आंदोलनों के कारण मुसलमानों के निजी कानूनों में थोड़ा बदलाव हुआ।
इस प्रक्रिया की शुरुआत 1882 के हैस्टिंग्स योजना से हुई और अंत शरिअत कानून के लागू होने से हुआ। हालाँकि समान नागरिकता कानून उस वक्त कमजोर पड़ने लगा, जब तथाकथित सेक्यूलरों ने मुस्लिम तलाक और विवाह कानून को लागू कर दिया। 1929 में, जमियत-अल-उलेमा ने बाल विवाह रोकने के खिलाफ मुसलमानों को अवज्ञा आंदोलन में शामिल होने की अपील की। इस बड़े अवज्ञा आंदोलन का अंत उस समझौते के बाद हुआ जिसके तहत मुस्लिम जजों को मुस्लिम शादियों को तोड़ने की अनुमति दी गई। जब ब्रिटिश भारत आये तो उन्होंने पाया कि यहाँ हिन्दू, मुस्लिम, इसाई, यहूदी आदि सभी धर्मों के अलग-अलग धर्म-सबंधित नियम-क़ानून हैं.
जैसे हिन्दू धर्म में:- हिंदू कोड बिल क्या था?
भारत आजाद तो हो चुका था. मगर सही मायने में अभी कई संकीर्ण मानसिकताओं का गुलाम बना हुआ था. जहाँ एक ओर हिन्दू पुरुष एकाधिक विवाह कर सकते थे वहीँ दूसरी ओर एक विधवा औरत पुनर्विवाह (re-marriage) का सोच भी नहीं सकती थी. महिलाओं को उत्तराधिकार और सम्पत्ति के अधिकार से वंचित रखा गया था. महिलाओं के जीवन में इन सामाजिक बेड़ियों को तोड़ने के लिए नेहरु (Nehru) ने हिन्दू कोड बिल का आह्वाहन किया. भीमराव अम्बेडकर (Bheemrao Ambedkar) भी इस मामले में नेहरु के साथ खड़े नज़र आये. पर इस बिल का पूरे संसद में पुरजोर विरोध हुआ. लोगों का कहना था कि संसद में उपस्थित सभी गण जनता द्वारा चयनित नहीं है और यह एक बहुल समुदाय के धर्म का मामला है इसीलिए जनता द्वारा बाद में विधिवत् चयनित प्रतिनिधि ही इस पर निर्णय लेंगे. दूसरा पक्ष यह भी रखा गया कि आखिर हिन्दू धर्म को ही किसी ख़ास बिल बनाकर बाँधने की जरूरत क्यों पड़ रही है, अन्य धर्मों को क्यों नहीं? इस प्रकार आजादी के पहले हिन्दू नागरिक संहिता Hindu Civil Code बनाने का प्रयास असफल रह गया. बाद में संविधान के अंदर 1952 में पहली सरकार गठित होने पर इस दिशा में कार्रवाई शुरू हुई और विवाह आदि विषयों पर हिन्दुओं के लिए अलग-अलग कोड बनाये गये.
1. पुनर्विवाह वर्जित था (Hindu Widow Remarriage Act of 1856 द्वारा ख़त्म किया गया)
2. बाल-विवाह का मान्य था, शादी की कोई उम्र-सीमा नहीं थी
3. पुरुष के लिए बहुपत्नीत्व हिन्दू समाज में स्वीकार्य था
4. स्त्री (जिसमें बेटी या पत्नी दोनों शामिल थे) को उत्तराधिकार से वंचित रखा जाता था
5. स्त्री के लिए दत्तक पुत्र रखना वर्जित था
6. विवाहित स्त्री को सम्पत्ति का अधिकार नहीं था (Married Women’s Property Act of 1923 द्वारा उसे ख़त्म किया गया)
मुस्लिम धर्म में:-
1. पुनर्विवाह की अनुमति थी
2. उत्तराधिकार में स्त्री का कुछ हिस्सा था
3. तीन बार तलाक बोलने मात्र से अपने जीवन से पुरुष स्त्री को हमेशा के लिए अलग कर सकता था.
सुप्रीम कोर्ट में शाह बानो केस CASE OF SHAAH BANO IN SUPREME COURT
शाह बानो केस Shaah Bano Case शाह बानो vs उसका पति/शौहर —1978 में मध्य प्रदेश में रहने वाली शाह बानो के पति ने उसे तलाक दे दिया. 6 बच्चों की माँ शाह बानो के पास जीविका का कोई साधन नहीं था. इसलिए उसने गुजारे का दावा (alimony) करने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाज़ा खटखटाया. वह केस जीत गयी और सुप्रीम कोर्ट ने फैसला किया (जो सभी धर्मों पर लागू होता था) कि शाह बानों को निर्वाह-व्यय के समतुल्य आर्थिक मदद (maintenance expenses) दी जाए. भारत के रूढ़िवादी मुसलमानों (orthodox Muslims) ने इसका विरोध किया और सुप्रीम कोर्ट के इस कदम को उनकी संस्कृति और विधानों पर अनधिकार हस्तक्षेप माना.
भारत सरकार कांग्रेस-आई के कमान में थी और उसे पूर्ण बहुमत प्राप्त था. कुछ ही समय बाद चुनाव होने वाला था. मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए या मुस्लिम वोट बैंक को ध्यान में रखकर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने संसद् से The Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act 1986 पास करा दिया जिससे सुप्रीम कोर्ट के शाह बानो केस में किये गए निर्णय को निरस्त कर दिया गया और alimony को आजीवन न रखकर तलाक के बाद के 90 दिन तक सीमित कर दिया गया.
मुस्लिम सामान नागरिक संहिता के खिलाफ क्यों हैं?
मुसलमानों का कहना है कि हमारे लिए अलग से कोई भी कानून बनाने की आवश्यकता नहीं हैं क्योंकि हमारे लिए कानून पहले से ही बने हुए हैं जिनका नाम शरीयत है. हम न इससे एक इंच आगे जा सकते हैं, न एक इंच पीछे. हमें इससे मतलब नहीं है कि बाकी कौम अपने लिए कैसा सिविल कोड (civil code) चाहते हैं. हमारा सिविल कोड वही होगा जिसकी अनुमति हमारा धर्म देता है.
क्या मुस्लिमों का यह विरोध उचित है?
अधिकांश विचारकों का यह मानना है कि एक देश में कानून भी एक ही होना चाहिए, चाहे वह दंड विधान (penal code) हो या नागरिक विधान (civil code). अंग्रेजों ने इसके लिए कोशिश की थी पर उन्होंने मात्र एक दंड विधान (Indian penal code) को लागू किया और नागरिक विधानों के पचड़े में नहीं पड़े. सच्चाई यह है कि ऐसा मुस्लिमों के विरोध के चलते हुआ जबकि अन्य धर्मावलम्बी उसके लिए तैयार थे.
कई विचारकों का कहना है कि तुष्टीकरण (appeasement) के तहत उठाया गया अंग्रेजों का यह कदम देश के लिए हितकर नहीं था. वस्तुतः समान नागरिकसंहिता किसी भी देश के लिए निम्नलिखित कारणों से आवश्यक होती है—
1. एक ही नागरिक संहिता होने से विभिन्न सम्प्रदायों के बीच एकता की भावना पैदा होती है
2. इससे राष्ट्र्भावना भी पनपती है.
3. एक ही विषय में अलग-अलग कानूनों की भरमार होने से न्यायतंत्र को भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
4. शरीयत की जिद कोई ऐसी जिद नहीं है जिसपर सभी देशों के मुसलमान अड़े हुए हैं. कई देश, जैसे:- टर्की, ट्युनीशिया, मोजाम्बिक आदि मुस्लिम देशों ने ऐसे नागरिक कानून बनाए हैं जो शरीयत के अनुसार नहीं है.
5. समय के अनुसार विभिन्न धर्मों के अनुयायियों ने अपनी-अपनी नागरिक संहिताओं में परिवर्तन किये हैं. उदाहरण के लिए हिन्दू नागरिक संहिता, जो कि जैनों, बौद्धों, सिखों आदि पर भी लागू होती है, पूर्ण रूप से हिन्दू धार्मिक परम्पराओं के अनुरूप नहीं है. इसमें हमेशा बदलाव किये जाते रहे हैं.
अंग्रेजों ने शुरू में इस पर विचार किया कि सभी भारतीय नागरिकों के लिए एक ही नागरिक संहिता बनायी जाए. पर धर्मों की विविधता और सब के अपने-अपने कानून होने के कारण उन्होंने यह विचार छोड़ दिया. इस प्रकार अंग्रेजों के काल में विभिन्न धर्म के धार्मिक विवादों का निपटारा कोर्ट सम्बन्धित धर्मानुयायियों के पारम्परिक कानूनों के आधार पर करने लगी.
संविधान सभा ने भी समान नागरिक संहिता पर विचार किया था और एक समय इसे मौलिक अधिकार में रखा जा रहा था. परन्तु 5:4 के बहुतमत से यह प्रस्ताव निरस्त हो गया. किन्तु राज्य नीति निर्देशक तत्त्व के अन्दर इसे शामिल कर दिया गया.
भारतीय संविधान और समान नागरिक संहिता
समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के भाग ४ के अनुच्छेद ४४ में है। इसमें नीति-निर्देश दिया गया है कि समान नागरिक कानून लागू करना हमारा लक्ष्य होगा। सर्वोच्च न्यायालय भी कई बार समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में केन्द्र सरकार के विचार जानने की पहल कर चुका है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ४२वें संशोधन के माध्यम से 'धर्मनिरपेक्षता' शब्द को प्रविष्ट किया गया। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान का उद्देश्य भारत के समस्त नागरिकों के साथ धार्मिक आधार पर किसी भी भेदभाव को समाप्त करना है, लेकिन वर्तमान समय तक समान नागरिक संहिता के लागू न हो पाने के कारण भारत में एक बड़ा वर्ग अभी भी धार्मिक कानूनों की वजह से अपने अधिकारों से वंचित है।
मूल अधिकारों में 'विधि के शासन' की अवधारणा विद्यमान है, जिसके अनुसार, सभी नागरिकों हेतु एक समान विधि होनी चाहिये। लेकिन स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग अपने मूलभूत अधिकारों के लिये संघर्ष कर रहा है। इस प्रकार समान नागरिक संहिता का लागू न होना एक प्रकार से विधि के शासन और संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है।
'सामासिक संस्कृति' के सम्मान के नाम पर किसी वर्ग की राजनीतिक समानता का हनन करना संविधान के साथ-साथ संस्कृति और समाज के साथ भी अन्याय है क्योंकि प्रत्येक संस्कृति तथा सभ्यता के मूलभूत नियमों के तहत महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार प्राप्त होता है लेकिन समय के साथ इन नियमों को गलत तरीके से प्रस्तुत कर असमानता उत्पन्न कर दी जाती है।
समान नागरिक संहिता से सम्भावित लाभ
अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे। सभी के लिए कानून में एक समानता से देश में एकता बढ़ेगी। जिस देश में नागरिकों में एकता होती है, किसी प्रकार वैमनस्य नहीं होता है, वह देश तेजी से विकास के पथ पर आगे बढ़ता है। देश में हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति पर भी असर पड़ेगा और राजनीतिक दल वोट बैंक वाली राजनीति नहीं कर सकेंगे और वोटों का ध्रुवीकरण नहीं होगा। ध्यातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शाहबानो मामले में दिये गए निर्णय को तात्कालीन राजीव गांधी सरकार ने धार्मिक दबाव में आकर संसद के कानून के माध्यम से पलट दिया था। समान नागरिक संहिता लागू होने से भारत की महिलाओं की स्थिति में भी सुधार आएगा। अभी तो कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं। इतना ही नहीं, महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे।
धार्मिक रुढ़ियों की वजह से समाज के किसी वर्ग के अधिकारों का हनन रोका जाना चाहिये साथ ही 'विधि के समक्ष समता' की अवधारणा के तहत सभी के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिये । वैश्वीकरण के वातावरण में महिलाओं की भूमिका समाज में महत्त्वपूर्ण हो गई है, इसलिये उनके अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता में किसी प्रकार की कमी उनके व्यक्तित्त्व तथा समाज के लिये अहितकर है। सर्वोच्च न्यायालय ने संपत्ति पर समान अधिकार और मंदिर प्रवेश के समान अधिकार जैसे न्यायिक निर्णयों के माध्यम से समाज में समता हेतु उल्लेखनीय प्रयास किया है इसलिये सरकार तथा न्यायालय को समान नागरिक संहिता को लागू करने के समग्र एवं गंभीर प्रयास करने चाहिये।
क्या समान नागरिक संहिता केवल मुस्लिम नागरिक कानून में बदलाव लाएगी?
यह धारणा गलत है कि कॉमन सिविल कोड केवल मुस्लिम नागरिक कानून में बदलाव लाएगी. कई बार महिला संगठनों ने यह बात हमारे सामने रखी है कि हर धर्म के अपने-अपने धर्म-कानूनों में एक समान बात है, और वह है– ये सभी कानून स्त्री के प्रति भेदभाव पर आधारित हैं (based on women discrimination).
उदाहरण के लिए, हिन्दू में जो उत्तराधिकार को लेकर कानून है वह पूरी तरह से नारी और पुरुष के बीच भेदभाव पर आधारित है. इसीलिए आज जब भी कोई समान नागरिक संहिता बनेगी, जो सम्पूर्ण रूप से आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष, पक्षपातरहित और प्रगतिशील होगी, तो हिन्दू नागरिक कानून में भी बदलाव आवश्यक होगा.
समान नागरिक संहिता के विषय में विधि आयोग के विचार
वर्ष 2016 में विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा समान नागरिक संहिता से संबंधित मुद्दों के समग्र अध्ययन हेतु एक विधि आयोग का गठन किया गया। विधि आयोग ने कहा कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूल अधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 और 25 के बीच द्वंद्व से प्रभावित है। आयोग ने भारतीय बहुलवादी संस्कृति के साथ ही महिला अधिकारों की सर्वोच्चता के मुद्दे को इंगित किया। पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा की जा रही कार्यवाहियों को ध्यान में रखते हुए विधि आयोग ने कहा कि महिला अधिकारों को वरीयता देना प्रत्येक धर्म और संस्थान का कर्तव्य होना चाहिये। विधि आयोग के विचारानुसर, समाज में असमानता की स्थिति उत्पन्न करने वाली समस्त रुढ़ियों की समीक्षा की जानी चाहिये। इसलिये सभी निजी कानूनी प्रक्रियाओं को संहिताबद्ध करने की आवश्यकता है जिससे उनसे संबंधित पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी तथ्य सामने आ सकें। वैश्विक स्तर पर प्रचलित मानवाधिकारों की दृष्टिकोण से सर्वमान्य व्यक्तिगत कानूनों को वरीयता मिलनी चाहिये। लड़कों और लड़कियों की विवाह की 18 वर्ष की आयु को न्यूनतम मानक के रूप में तय करने की सिफारिश की गई जिससे समाज में समानता स्थापित की जा सके।