जेल प्रशासन में सुधार / SOME IMPORTANT-PRISON REFORMS/ CHAPTER-2

जेलों पर ज़रूरत से ज़्यादा बोझ और कर्मचारियों की कमी के चलते भारतीय जेलें राजनीतिक रसूख वाले अपराधियों के लिए एक आरामगाह और सामाजिक-आर्थिक तौर पर कमज़ोर विचाराधीन कैदियों के लिए नरक हैं. सुप्रीम कोर्ट ने देश में खुली जेलों की संख्या बढ़ाने के साथ ही कैदियों के साथ अधिक मानवीय व्यवहार करने पर जोर दिया है। कोर्ट का कहना है कि विशेष तौर पर ऐसे विचाराधीन कैदियों के साथ व्यवहार अच्छा होना चाहिए जो कानूनी मामले में देरी के कारण लंबे समय से जेल में बंद हैं। इसके साथ ही कोर्ट ने जेल के अंदर कैदी की अप्राकृतिक मृत्यु होने पर उसके परिवार को मुआवजा देने का भी पक्ष लिया है। कोर्ट ने हिरासत में होने वाली मृत्यु की संख्या में कमी न आने पर भी नाराजगी जताई। भारत में जेलों की हालत को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर एक गंभीर बहस की शुरुआत होगी, लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ. जहां देश में एक तरफ ट्रांसजेंडर पहचान रखने वाले लोगों के लिए क़ानूनी अधिकारों की बात होना शुरू हो रहा है, वहीं दूसरी ओर देश की जेलों में बंद ऐसे लोग ज़रूरी हक़ों और सुविधाओं से भी महरूम हैं. जेलें क़ैदियों को उनके अपराध के आधार पर वर्गीकृत कर सकती हैं, लेकिन जेलों, ख़ासतौर पर महिला जेलों में वर्गीकरण सिर्फ अपराधों से तय नहीं होता है. यह सदियों की परंपराओं और अक्सर धर्म द्वारा स्थापित नैतिक लक्ष्मण रेखा लांघने से जुड़ा है. ऐसे में भारतीय महिलाएं जब जेल जाती हैं, तब वे अक्सर जेल के भीतर एक और जेल में दाख़िल होती हैं. दिल्ली दंगों से संबंधित मामले में गिरफ़्तार गर्भवती सफूरा ज़रगर तिहाड़ जेल में हैं और अदालत में जेल अधीक्षक का कहना था कि उन्हें सभी ज़रूरी सुविधाएं दी जा रही हैं. हालांकि देश की जेलों की स्थिति पर आए आंकड़े और सूचनाएं बताते हैं कि भारतीय जेलें गर्भवती महिला क़ैदियों के लिहाज़ से मुफ़ीद नहीं हैं. इसके बाद ही सुप्रीम कोर्ट की ओर से ये निर्देश आए हैं। जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की बेंच ने हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस से अपने संबंधित कोर्ट में खुद जनहित याचिका दायर कर जेलों में सुधार करने के लिए कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कैदियों के मूलभूत अधिकारों को ठंडे बस्ते में नहीं डाला जा सकता। कोर्ट ने केंद्र सरकार और राज्यों से जेल के कैदियों के साथ जितना अधिक संभव हो, मानवीय व्यवहार करने के लिए कर्मचारियों को जागरूक करने के लिए कहा है। कोर्ट का कहना था कि राज्य सरकारों को जमानत के प्रत्येक आवेदन का विरोध करने या जांच बाकी होने तक प्रत्येक संदिग्ध की रिमांड मांगने की जरूरत नहीं है। कोर्ट ने कहा कि अगर संविधान के आर्टिकल 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार वास्तविक अर्थ में दिया जाना है तो केंद्र और राज्य सरकारों को वास्तविकता स्वीकार करनी होगी और इस आधार पर नहीं चलना होगा कि कैदियों के साथ गुलाम जैसा व्यवहार किया जा सकता है। हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस से जेलों के अंदर मानवीय व्यवहार और सम्मान, जेलों के अंदर अप्राकृतिक मृत्यु वाले कैदियों के परिवार को मुआवजा देने और अकेलेपन और कैद से निपटने के लिए काउंसलिंग पर भी विचार करने को कहा गया है। कोर्ट ने परिवार से मुलाकात, फोन के जरिए संपर्क को भी बढ़ाने का सुझाव दिया है। इसके साथ ही अकेलेपन को कम करने और मानसिक स्थिरता में सुधार के लिए समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के जरिए बाहरी दुनिया से जोड़ने की जरूरत भी बताई है। कोर्ट ने कैदियों के साथ व्यवहार के न्यूनतम स्तर के बारे में संयुक्त राष्ट्र महासभा की ओर से अपनाए गए मैन डेला रूल्स का भी जिक्र किया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों से पता चलता है कि परिवार और मित्रों से कटे हुए कैदियों के जेल से बाहर रहने वाले लोगों की तुलना में आत्महत्या करने के 50 पर्सेंट अधिक अवसर होते हैं। देश में अभी केवल 54 खुली जेल हैं।

 

संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत जेलों का रख-रखाव और प्रबंधन पूरी तरह से राज्य सरकारों का विषय है. हर राज्य में जेल प्रशासन तंत्र चीफ ऑफ प्रिज़न्स (कारागार प्रमुख) की देखरेख में काम करता है, जो वरिष्ठ रैंक का आईपीएस अधिकारी होता है. भारत की जेलें तीन ढांचागत समस्याओं से जूझ रही हैं: एक, जेलों में क्षमता से ज़्यादा कैदी, जिसका श्रेय जेल की आबादी में अंडरट्रायल्स (विचाराधीन कैदियों) के बड़े प्रतिशत को जाता है; दो, कर्मचारियों का टोटा; तीन, फंड की कमी. इसका अनिवार्य तौर पर नतीजा लगभग अमानवीय जीवन स्थितियों, गंदगी और कैदियों और जेल अधिकारियों के बीच हिंसक झड़पों के तौर पर निकला है.

 

जेल प्रशासन  की समस्याए:

 

  • जेलों में क्षमता से ज़्यादा कैदी / जेलों में ठूंस-ठूंस कर भरे कैदी

  • कर्मचारियों का टोटा

  • फंड की कमी

  • जेलों में होने वाली अस्वाभाविक मौतों

  • भारतीय जेलें गर्भवती महिला क़ैदियों के लिहाज़ से मुफ़ीद नहीं हैं.

  • भारतीय महिलाएं जब जेल जाती हैं, तब वे अक्सर जेल के भीतर एक और जेल में दाख़िल होती हैं.

 

आज हम भारतीय  जेल प्रशासन  की समस्याएं मैं से  देश की जेलों में महिला क़ैदियों की  समस्याओं के बारे में विचार - विमर्श करेंगे......

 

 

3  देश की जेलों में महिला क़ैदियों की समस्याए :

 

भारत में जेलों की स्थिति, खासकर तिहाड़ जेल को लेकर ‘तिनका-तिनका तिहाड़’ किताब लिखने वाली  पत्रकार वर्तिका नंदा बताती हैं, ‘कोरोना के समय जेलों को खाली तो नहीं किया गया है लेकिन जो नए कैदी आ रहे हैं, उन्हें क्वारांटीन करके अलग रखना है. अब जेल में तो पहले की तरह ही स्पेस है, जगह तो बड़ी नहीं है. सीमित जगह में इन सारी चीजों को करना एक बहुत बड़ी समस्या है.’ इसके आगे वे कहती हैं, ‘जहां तक जेलों का सवाल है. ये जेल पर निर्भर करता है कि वह कौन-सी जेल है और कहां की जेल है. उसे किस तरह रखा गया है. तिहाड़ ने कई वर्षों में अपने स्टैंडर्ड को मजबूत करने का काम किया है. इनमें काफी मॉर्डन सुविधाएं है और समय के साथ इनमें काफी सुधार किया गया है.’

 

Female prisoners sit inside their cell in the eastern Indian city of Kolkata. Credit: Reuters

 

एनसीआरबी रिपोर्ट की मानें तो पूरे देश में कुल 1,339 जेलें हैं. इनमें कुल कैदियों को रखने की क्षमता 3,96,223 है, लेकिन 31 दिसंबर, 2018 तक इनमें रहने वाली कैदियों की संख्या 4,66,084 थी यानी  क्षमता से 17.6 फीसदी अधिक. दूसरी ओर देश में पांच राज्य- उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और झारखंड ऐसे हैं, जहां के जेलों में क्षमता से अधिक महिला कैदियों को रखा गया है. वहीं, महिला कैदियों को पुरुष कैदियों से अलग रखने के लिए महिला जेल होने की बात कही गई है, लेकिन इन 1,339 जेलों में महिला जेलों की संख्या केवल 24 है. ये जेलें देश के 15 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में ही स्थित हैं. इनके अलावा 21 राज्य/केंद्रशासित प्रदेश ऐसे हैं, जहां महिला जेल की कोई व्यवस्था नहीं है. इनमें अकेले तमिलनाडु में ही पांच महिला जेलें हैं. वहीं दिल्ली में इनकी संख्या दो है. एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 के आखिर तक इनकी कुल क्षमता 648 थी, जिनमें 530 महिला कैदी रह रही थीं. हालांकि राज्यसभा में चार दिसंबर, 2019 को एक सवाल के जवाब में बताया गया कि दो दिसंबर, 2019 तक इन जेलों में महिला कैदियों की संख्या बढ़कर 651 हो गई.

 

दूसरी ओर देश में अधिक जनसंख्या वाले राज्यों- उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में केवल एक-एक महिला जेल है. यानी वैसे राज्य जहां महिला जेल नहीं हैं या इनकी संख्या कैदियों की तुलना में कम है, वहां महिला कैदियों को सामान्य कारागार में ही रखा जाता है. 31 दिसंबर, 2018 तक पूरे देश में इनकी संख्या 15,999 थी. महिला जेलों के बारे में वर्तिका नंदा कहती हैं, ‘यह कहना गलत होगा कि यदि कोई महिला जेल है तो वहां की कैदियों की स्थिति अच्छी होगी. यह वहां की व्यवस्था पर निर्भर करता है, लेकिन महिला जेलों की तुलना में सामान्य जेलों में महिलाओं के लिए चुनौतियां काफी अधिक हैं.’ जेल में महिलाओं को दी जाने वाली सुविधाओं को लेकर वे कहती हैं, ‘सभी जेलों में एक ही तरह के पैरामीटर होते हैं. मुख्य बात ये है कि जेल में जगह कितनी है और जेल का स्टाफ कैदियों को कितनी सुविधाएं देता है, बहुत चीजें इस पर निर्भर करती हैं.’

 

4  देश की जेलों में गर्भवती महिला क़ैदियों की समस्याए :

 

हालांकि देश की जेलों की स्थिति पर आए आंकड़े और सूचनाएं बताते हैं कि भारतीय जेलें गर्भवती महिला क़ैदियों के लिहाज़ से मुफ़ीद नहीं हैं. फरवरी, 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली के सांप्रदायिक दंगों के मामले में सफ़ूरा आरोपित हैं. उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की कई गंभीर धाराओं के साथ गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून (यूएपीए) के तहत भी मामला दर्ज किया गया है. निचली अदालत ने जमानत याचिका खारिज करते हुए कहा था, ‘यह दिखाने के लिए प्रथम दृष्टया सबूत हैं कि कम से कम सड़क बंद करने के पीछे साजिश तो थी.’ इससे पहले सफूरा को 10 अप्रैल को गिरफ्तार किया गया था. साथ ही, 13 अप्रैल को उन्हें जमानत मिल गई थी. लेकिन फिर 20 अप्रैल को उनके खिलाफ यूएपीए के तहत मामला दर्ज कर किया गया. वहीं, बचाव पक्ष के वकील ने आरोपित की जमानत के लिए उनकी गर्भवती होने को भी आधार बनाया था. सफूरा पांच महीने की गर्भवती हैं. साथ ही उनके वकील ने बताया कि आरोपित छात्रा पॉलिस्टिक ओवेरियन डिसऑर्डर नामक बीमारी से भी जूझ रही हैं. यह एक हार्मोन से जुड़ी बीमारी है, जिसके चलते पीरियड्स की अवधि अनियमित हो जाती है. इसका सही इलाज न होने पर दिल की बीमारी और डायबिटीज होने का खतरा भी बढ़ जाता है. इसके अलावा जेल में कोविड-19 वायरस संक्रमण की भी आशंका जाहिर की गई. इन बातों के जवाब में अदालत ने तिहाड़ जेल अधीक्षक से आरोपित को पर्याप्त मेडिकल सुविधा और मदद सुनिश्चित करने को कहा. हालांकि, जिस जेल (तिहाड़-6) में उन्हें रखा गया है, वहां की कुल क्षमता के बराबर कैदी भी मौजूद है. राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में बताया गया है कि तिहाड़- जेल में दो दिसंबर तक कुल 398 महिला कैदी थीं. इस महिला जेल की कुल क्षमता 400 है.

 

वर्तिका नंदा की मानें तो अन्य देश के जेलों से तिहाड़ की तुलना नहीं की जा सकती है. लेकिन यहां सवाल उठता है कि क्या भारतीय जेलों की ऐसी स्थिति है जहां कोई गर्भवती महिला के स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखा जा सके? जिससे वे अनुकूल वातावरण में अपने बच्चे को जन्म दे सकें या फिर उनका पालन-पोषण हो संभव हो. राष्ट्रीय अपराध नियंत्रण ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 1,339 जेलों में 1,732 महिला कैदी अपने 1,999 बच्चों के साथ रह रही हैं. इन महिला कैदियों में 1,376 अंडरट्रायल हैं. वहीं, हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट बताती है कि साल 2014 में दिल्ली के अकेले तिहाड़ जेल में पैदा होने वाले बच्चों की संख्या 120 थी. इन बातों से यह तो साफ होता दिखता है कि एक गर्भवती महिला के लिए जेल में स्वस्थ बच्चे को जन्म देना टेढ़ी खीर के समान साबित हो सकता है. इसके अलावा जेलकर्मियों का इन महिला कैदियों के प्रति व्यवहार भी इनकी मुश्किलों को कम करने या बढ़ाने वाला साबित हो सकता है. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी हत्याकांड की दोषी नलिनी श्रीहरन को जब गिरफ्तार किया था, उस वक्त वह भी गर्भवती थी. उन्होंने अपनी बेटी अरिथरा को जेल में ही जन्म दिया था. उन्होंने इन घटनाओं को अपनी आत्मकथा ‘राजीव अससिनेशन: हिडेन ट्रूथ एंड द मीटिंग बिटवीन नलिनी एंड प्रियंका’ में जिक्र किया है. इसमें उन्होंने लिखा है कि उन्हें हत्याकांड के लिए गठित विशेष जांच दल ने 50 दिनों की हिरासत में रखा था. इस दौरान उन्हें पीटा गया, जिसमें छाती पर मुक्के मारना भी शामिल था. इसके अलावा उन्हें पुलिसकर्मियों द्वारा सामूहिक दुष्कर्म की भी धमकी भी दी गई. वहीं, दूसरों के सामने ही अपने पति वी. श्रीहरन ऊर्फ मुरुगन के साथ शारीरिक संबंध बनाने को कहा गया. नलिनी की मानें तो उन्हें 5×5 फीट के कमरे में कई हफ्तों तक रखा गया था. इन हालातों से गुजरने के बावजूद उन्होंने जेल में बेटी को जन्म दिया था. जेलों में बच्चों के जन्म को लेकर वर्तिका नंदा का कहना है, ‘जब बच्चा पैदा होता है तो उसके रहने के लिए अलग से कोई जगह नहीं होती. वह वहीं रहता है, जहां सारी महिलाएं रहती हैं. इसे मैं बहुत बड़ी समस्या मानती हूं क्योंकि बच्चे का जीवन से जो पहला परिचय होता है, वह बहुत प्रतिकूल माहौल में होता है.’ देश में जेलों की स्थिति की बात करें तो हमेशा यह बहस का मुद्दा रहा है कि यहां क्षमता से अधिक कैदी हैं और बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है. लेकिन इस बहस में महिला कैदियों की मुश्किलें न के बराबर ही जगह हासिल कर पाती हैं. हालांकि, जेल मैनुअल में कहा गया है कि जब किसी महिला को जेल में रखा जाता है तो उसका प्रेग्नेंसी टेस्ट किया जाता है. इसके अलावा गर्भवती होने पर उनकी जरूरत की बुनियादी चीजें भी मुहैया कराने की बात कही गई है.

 

सामान्य जेल में भी महिलाओं की अलग यूनिट होती है जेल मैनुअल में इन्हें पुरुष कैदियों से अलग रखने की व्यवस्था किए जाने की बात कही गई है. हालांकि, यह आम धारणा है कि किसी भी जेल की बनावट पुरुष कैदियों के हिसाब से होती है. इसके चलते कई चीजों को महिला कैदियों को कई तरह की असुविधाओं का सामना करना पड़ता है. इनकी तुलना में महिला जेलों की स्थिति थोड़ी बेहतर मानी जा सकती है. वहीं अगर जेल में स्वास्थ्य सुविधाओं की भी बात करें, तब भी स्थिति बेहतर नहीं दिखती. दिसंबर, 2018 तक 3,220 की जगह केवल 1,914 मेडिकल स्टाफ ही इन जेलों में तैनात थे, जो कुल क्षमता का करीब दो-तिहाई हिस्से से भी कम है. इसके अलावा पूरे देश की 1,339 जेलों में केवल 667 एम्बुलेन्स ही उपलब्ध है. असम, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश सहित छह राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के जेलों में एक भी एम्बुलेन्स नहीं है. एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018-19 में पूरे देश में कैदियों पर 1,776 करोड़ रुपये खर्च किए गए. जो कुल खर्च (5283.7 करोड़) का केवल 33.61% हिस्सा है. इन 1,776 करोड़ रुपये में से भी केवल 76.5 करोड़ रुपये ही कैदियों के स्वास्थ्य पर खर्च किए गए.

 

भारतीय संविधान के मुताबिक जेल राज्य सूची का विषय है. यानी इससे संबंधित सारी चीजें अलग-अलग सरकारें अपने राज्यों में तय करती हैं. इस लिहाज से अलग-अलग राज्यों के जेलों में कैदियों के लिए अलग-अलग सुविधाएं और मुश्किलें हैं. हालांकि, इसके बावजूद जेलों में जो एक बुनियादी सुविधाएं होनी चाहिए, वह अधिकांश जेलों से गायब ही दिखती हैं. इनमें रहने की जगह से लेकर स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं शामिल हैं. वहीं, इनके अभाव में कैदियों में सबसे अधिक मुश्किलों का सामना किसी गर्भवती और नवजात शिशु की मां को करना होता है. गर्भवती कैदी का मामला अकेला केवल सफूरा का ही नहीं है. अदालत और जेल अधिकारी की मानें, तो सफूरा को जरूरत की सारी चीजें मुहैया कराई जा रही हैं. लेकिन आंकड़े और जानकारियां बताते हैं कि हर साल देश में सैकड़ों गर्भवती महिलाओं को भी ये सुविधाएं हासिल होती होंगी, इस बारे में अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती है.

 

केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय की 2018 की एक रिपोर्ट में इस समस्या का उल्लेख करते हुए कहा गया, ‘संबंधित राज्य मैन्युअलों में बनाए गए नियमों के बावजूद कैदियों को शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनों काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है. कई मामलों में हॉस्पिटल में महिला वार्ड और महिला मेडिकल ऑफिसर खासकर स्त्रीरोग विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं हैं.’ भारत के कई अन्य स्थानों की तरह, जहां शारीरिक स्वास्थ्य ही उपेक्षित है, मानसिक स्वास्थ्य की हालत और बदतर है. कारावास और सामाजिक तिरस्कार का सभी कैदियों पर गंभीर असर पड़ता है, खासकर महिला कैदियों पर, जिन्हें कलंक का सामना भी करना पड़ता है, लेकिन सरकारों ने इस दिशा में मदद करने के लिए काफी कम किया है.

 

2018 में भारत की 1,382 जेलों की अमानवीय परिस्थितियों के मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में व्याप्त विभिन्न समस्याओं की जांच करने के लिए जेल सुधार पर एक समिति का गठन किया था. इस समिति का नेतृत्व सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड न्यायाधीश अमिताव राय और आईजी, ब्यूरो ऑफ एंड डेवलपमेंट तथा डीजी (प्रिजन्स) , तिहाड़ जेल इसके अन्य सदस्य हैं. अपने गठन के बाद से समिति ने भीड़-भाड़ से लेकर दोषियों को कानूनी सलाह की कमी से लेकर छूट और पैरोल जैसे विभिन्न विषयों को समेटते हुए दो विस्तृत रिपोर्ट सौंपी है. वे कड़वाहट के साथ पूछती हैं, ‘यह मेरे लिए बड़ा सदमा था. उन्होंने यह सोच भी कैसे लिया कि एक स्त्री पुरुषों की जेल में सही से रह पाएगी? उन्होंने हमसे हमारी प्राथमिकता क्यों नहीं पूछी कि क्या हम महिला कैदियों के साथ रहना पसंद करेंगी?’

 

किरण बताती हैं कि जेल में अपने 17 महीने के प्रवास में उन्होंने कम से कम पांच-छह शिकायती चिट्ठियां सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में रखे शिकायत बक्से में डाली होंगी, जिसे खोलने और बंद करने का अधिकार सिर्फ दौरा करनेवाले मजिस्ट्रेट के पास होने का प्रावधान है. इसी तरह की शिकायतें जेल अधीक्षक को भी की गईं. लेकिन न तो जेल अधिकारी और न ही न्यायपालिका उनका बचाव करने के लिए आई. पिछले साल मार्च में लॉकडाउन लगाए जाने और जेल मुलाकातों को बिना किसी सूचना के अचानक रोक देने से कोर्ट में याचिका देना या वकील को सूचना देना मुश्किल हो गया. किरण पूछती हैं, ‘जितनी बार भी हम अपनी शिकायत लेकर जाते और महिलाओं वाले अनुभाग में हमें स्थानांतरित करने की मांग करते, जेल प्रमुख हमसे जेल नियमों में ऐसा कोई प्रावधान न होने का हवाला देते. लेकिन आखिर किस नियम के तहत हमें पुरुषों की जेल मे ठूंस दिया गया और हर दिन हमारा यौन शोषण किया जाता था?’

 

जब तक उनके जैसे लोगों की कहानियां न सिर्फ सुनी जाएंगी, बल्कि उन्हें जब तक गंभीरता से नहीं लिया जाएगा, उन पर चर्चा नहीं होगी और इसका इस्तेमाल महिला कैदियों को लेकर विचार और उनके प्रति बर्ताव में बदलाव लाने के लिए नहीं किया जाएगा, यूं तो भारत पुनर्वास केंद्रित आपराधिक न्याय प्रणाली होने का दावा करता है, लेकिन भारत में अभी तक इन विकल्पों पर विचार नहीं किया गया जाएगा, तब तक भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली के पूनर्वास के अपने आदर्श पर खरे उतरने की उम्मीद नहीं की जा सकती है. साथ ही कैदी के सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को भी ध्यान में रखने को भी अहम मानते हैं. इन नियमों का कहना है कि जहां तक संभव हो ट्रायल पूर्व हिरासत और दोषसिद्धि के बाद जेल की सजा के विकल्प की जरूरत है, क्योंकि महिलाओं के मामले में कारावास न सिर्फ अप्रभावी बल्कि उनके लिए नुकसानदेह भी पाया गया है.

 

महिलाओं को जेल भेजे जाने की सूरत में बैंकॉक नियम कुछ विनियमों और सुरक्षा उपायों को लागू कराने की बात करते है. मसलन पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल, मानवीय व्यवहार, तलाशी के दौरान महिला कैदी की गरिमा की रक्षा और हिंसा से सुरक्षा. हालांकि भारत संयुक्त राष्ट्र महासभा में इन नियमों को सर्वसम्मति से पारित करनेवाले 193 देशों में से शामिल था, लेकिन महिला कैदियों के साथ किया जानेवाला बर्ताव सिफारिश किए गए अंतरराष्ट्रीय मानकों से काफी दूर है.

 

 

                                                                                              be continued to read........       

 

 

 

 

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