राष्ट्रीयता की भावना

"राष्ट्रीयता की भावना न ही बाज़ार में बिकती है और न ही भाड़े पर मिलती है, उसे लोगों के अंदर पैदा करना पड़ता है " इसलिए, ऐसी कोई भी विकास की प्रक्रिया को राष्ट्र के लिए आदर्श नीति नहीं कही जा सकती जो अर्थ व्यवस्था के लाभ हानि तक सीमित हो और राष्ट्रीयता की भावना के महत्व की अपेक्षा करे। राष्ट्रीयता की भावना नागरिकों को राष्ट्र के प्रति समर्पण और समाज के उत्थान के प्रति निरंतर प्रयासरत रहने के लिए प्रेरित करती है; अतः राष्ट्रीयता की भावना के लिए राष्ट्र के नागरिकों की स्थिति महत्वपूर्ण है I

 

जब तक समाज में व्यक्ति आर्थिक, सामाजिक अथवा शैक्षणिक दृष्टि से असहाय अथवा असुरक्षित महसूस करेगा, उसमे न केवल आत्मविश्वास का आभाव होगा बल्कि उसके लिए प्राथमिकता की सूची में व्यक्तिगत सम्पन्नता भी राष्ट्रीयता की भावना से अधिक महत्वपूर्ण होगा I समाज में व्यक्ति को व्यवस्था के माध्यम से भविष्य के प्रति सुरक्षित एवं आस्वश्त करना होगा तभी उनके लिए राष्ट्र का महत्व व्यक्ति और परिवार से ऊपर होगा ; इसके लिए न केवल शिक्षा की नीति एवं पद्धति में परिवर्तन की आवश्यकता होगी बल्कि पाठ्यक्रम एवं शिक्षण अध्यन की प्रक्रिया में सुधIर भी करना पड़ेगा, अर्थव्यवस्था का आधार बाज़ार के मांग और पूर्ती के बजाये समय की आवश्यकता और संसाधनों के उपयोग को बनाना होगा और सामाजिक चेतना के स्तर को महत्व के लिए तुलनात्मक दृष्टिकोण पर आश्रित रहने के बजाये व्यक्तिगत विशिष्टता को महत्व का आधार बनाना होगाI

 

राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर रहने वाले लोगों को अपने-अपने राष्ट्र का अस्तित्व स्वाभाविक, प्राचीन, चिरन्तन और स्थिर लगता है। इस विचार की ताकत का अंदाज़ा इस हकीकत से भी लगाया जा सकता है कि इसके आधार पर बने राष्ट्रीय समुदाय वर्गीय, जातिगत और धार्मिक विभाजनों को भी लाँघ जाते हैं। राष्ट्रवाद के आधार पर बने कार्यक्रम और राजनीतिक परियोजना के हिसाब से जब किसी राष्ट्र-राज्य की स्थापना हो जाती है तो उसकी सीमाओं में रहने वालों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी विभिन्न अस्मिताओं के ऊपर राष्ट्र के प्रति निष्ठा को ही अहमियत देंगे। वे राष्ट्र के कानून का पालन करेंगे और उसकी आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान भी दे देंगे। यहाँ यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि आपस में कई समानताएँ होने के बावजूद राष्ट्रवाद और देशभक्ति में अंतर है। राष्ट्रवाद अनिवार्य तौर पर किसी न किसी कार्यक्रम और परियोजना का वाहक होता है, जबकि देशभक्ति की भावना ऐसी किसी शर्त की मोहताज नहीं है।

 

राष्ट्रवाद के आलोचकों की कमी नहीं है और न ही उसे ख़ारिज करने वालों के तर्क कम प्रभावशाली हैं। एक महाख्यान के तौर पर राष्ट्रवाद छोटी पहचानों को दबा कर पृष्ठभूमि में धकेल देता है।

 

राष्ट्रवाद के प्रश्न के साथ कई सैद्धांतिक उलझनें जुड़ी हुई हैं।  मसलन, राष्ट्रवाद और आधुनिक संस्कृति व पूँजीवाद का आपसी संबंध क्या है? पश्चिमी और पूर्वी राष्ट्रवाद के बीच क्या फ़र्क है? एक राजनीतिक परिघटना के तौर पर राष्ट्रवाद प्रगतिशील है या प्रतिगामी? हालाँकि धर्म को राष्ट्र के बुनियादी आधार के तौर पर मान्यता प्राप्त नहीं है, फिर भी भाषा के साथ-साथ धर्म के आधार पर भी राष्ट्रों की रचना होती है। सवाल यह है कि ये कारक राष्ट्रों को एकजुट रखने में नाकाम क्यों हो जाते हैं? सांस्कृतिक और राजनीतिक राष्ट्रवाद को अलग-अलग कैसे समझा जा सकता है? इन सवालों का जवाब देना आसान नहीं है, क्योंकि राजनीति विज्ञान में एक सिद्धांत के तौर पर राष्ट्रवाद का सुव्यवस्थित और गहन अध्ययन मौजूद नहीं है। विभिन्न राष्ट्रवादों का परिस्थितिजन्य चरित्र भी इन जटिलताओं को बढ़ाता है। यह कहा जा सकता है कि ऊपर वर्णित समझ के अलावा राष्ट्रवाद की कोई एक ऐसी सार्वभौम थियरी उपलब्ध नहीं है जिसे सभी पक्षों द्वारा मान्यता दी जाती हो।

 

राष्ट्रवाद का अध्ययन करना इसलिए जरूरी है कि वैश्विक मामलों में यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पिछली दो शताब्दियों के दौरान राष्ट्रवाद एक ऐसे सम्मोहक राजनीतिक सिद्धान्त वेफ रूप में उभरा है जिसने इतिहास रचने में योगदान किया है। इसने उत्कट निष्ठाओं के साथ-साथ गहरे विद्वेषों को भी प्रेरित किया है। इसने जनता को जोड़ा है तो विभाजित भी किया है। इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की तो इसके साथ यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है। साम्राज्यों और राष्ट्रों के ध्वस्त होने का यह भी एक कारण रहा है। राष्ट्रवादी संघर्षों ने राष्ट्रों और साम्राज्यों की सीमाओं के निर्धारण-पुनर्निर्धारण में योगदान किया है। आज भी दुनिया का एक बड़ा भाग विभिन्न राष्ट्र-राज्यों में बंटा हुआ है। हालाँकि राष्ट्रों की सीमाओं के पुनर्संयोजन की प्रक्रिया अभी खत्म नहीं हुई है और मौजूदा राष्टोंं के अन्दर भी अलगाववादी संघर्ष आम बात है।

 

युवा राष्ट्र की रीढ़ हैं। उनके बल पर ही राष्ट्र की प्रगति तथा समाज की खुशहाली निर्भर है। आज कुशल, राष्ट्रभक्त एवं अनुशासित युवाओं की अधिक जरूरत है।युवाओं में सामाजिक बोध एवं राष्ट्रभक्ति की भावना आवश्यक है। 

 

यह सरल न होगा पर शिखर की चढाई सरल होती भी नहीं; अगर हम भारत को वैभव के शीर्ष पर देखना चाहते हैं, तो सिर्फ चाहने से कुछ न होगा, हमें इसके लिए पूरी निष्ठां से प्रयास भी करने होंगे; सामाजिक जीवन में अपने आचार, विचार और आचरण से आदर्श का उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ेगा; अपेक्ष्याएँ दूसरों से नहीं स्वयं से करनी होगी और अपने प्रयास द्वारा स्वयं से स्वयं की अपेक्षाओं का विस्तार करते रहना होगा तभी हम वर्त्तमान के लिए आदर्श और भविष्य के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन सकेंगे;

 

अगर अभूतपूर्व परिणाम चाहिए तो प्रयास भी अभूतपूर्व ही करने पड़ेंगे और जैसा आज तक चल रहा है और चलता आया है उससे अलग कुछ नया करना होगा ; केवल इतना ही नहीं, ऐसे अभूतपूर्व प्रयासों की आदत भी हमें डालनी पड़ेगी क्योंकि यही भविष्य की शैली होगी;

अगर हम ऐसा कर सके तो निश्चित रूप से एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण कर पाएंगे जिनके लिए आदर्श आचरण ही व्यवहारिकता का उदाहरण होगा और वही सही अर्थों में भारत का परम वैभव ! "

 

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