राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने का प्रयास लम्बे समय से चल रहा है, लेकिन आज तक राजस्थानी को केंद्र की आठवीं अनुसूची में जगह नहीं मिली. समय- समय पर विभिन्न दल भाषा को 8वीं अनुसूची में शामिल करने की गुहार केन्द्र से लगाते रहे हैं. सालों से विधायकों, सांसदों की ओर से केंद्र सरकार को लिखा जाता रहा है इस आस में कि भाषा को वो मुकाम मिले (Rajasthani as official Language of state) जिसकी वो हकदार है. ये मुद्दा समय समय पर रफ्तार पकड़ता है. इन दिनों फिर चर्चा में है. राज्य सरकार जहां गेंद केन्द्र के पाले में डाल रही है तो मुख्य विपक्षी दल प्रदेश सरकार को उसके हक हुकूक याद दिला रही है. 2003 को अशोक गहलोत ने बतौर CM 8 वीं अनुसूची में राजस्थानी को जगह देने की गुजारिश केन्द्र से की थी. उस मांग को तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जयसवाल ने साल 2006 में सैद्धांतिक सहमति भी दे दी. लेकिन वो हो न सका.करीब 18 साल बाद भी राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव केंद्र के अटका हुआ है. इस दौरान केंद्र और राज्य में कांग्रेस और भाजपा की सरकारें भी रहीं लेकिन मामला अटका ही रहा. हर कोई चाहता है कि राजस्थानी भाषा को मान्यता मिले लेकिन यह केंद्र ही कर सकता है, लेकिन वो इस ओर ध्यान ही नहीं दे रहा. केन्द्र के लिए ये कोई मुद्दा नहीं है. ऐसे में यह मांग केंद्र सरकार से की जानी चाहिए कि वह राजस्थानी भाषा को मान्यता दे. राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किए जाने के चलते अब तक संवैधानिक मान्यता नहीं मिली है और इसमें कई पेचिदगियां भी है I
राजस्थान की मातृभाषा दुनिया की सबसे समृद्ध भाषाओं में से एक है. इससे हमारी संस्कृति की पहचान है और हमारी भावनाएं जुड़ी हुई है. प्रत्येक राजस्थानी का सपना है कि राजस्थानी भाषा को राजभाषा (Rajasthani As Rajbhasha) बनाया जाए. गोवा में गोवा, दमन-दीव, राजभाषा अधिनियम 1987 से कोंकणी भाषा को राजभाषा बनाया है. छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ राजभाषा अधिनियम संशोधन 2007 से छत्तीसगढ़ी भाषा और झारखण्ड में बिहार राजभाषा (झारखण्ड संशोधन) अधिनियम 2018 से मगही भोजपुरी सहित 17 भाषाओं को राजभाषा बनाया गया है. मेघालय राज्य में मेघालय राज्य भाषा अधिनियम 2005 से खासी व गारो भाषा, सिक्किम राज्य में सिक्किम भाषा अधिनियम 1977 से भूटिया, लेपचा व नेपाली भाषा और पश्चिम बंगाल राज्य में पश्चिम बंगाल राजभाषा अधिनियम द्वितीय संशोधन बिल 2018 के जरिए खमतपुरी, राजवंशी भाषा को भी बिना संवैधानिक मान्यता के राजभाषा घोषित किया गया है.
राजस्थानी भाषा को बिना संवैधानिक मान्यता के राजस्थान विधानसभा में अन्य प्रदेशों की तरह राजभाषा का दर्जा दे दें! हालांकि अभी ये तय नहीं है. राजस्थान विधानसभा से पहले भी केंद्र सरकार को कई प्रस्ताव भिजवाए गए हैं. इनमें सर्वसम्मति से सदन से पास किए गए प्रस्ताव में आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रस्ताव, राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल कर संवैधानिक मान्यता देने का प्रस्ताव और राजस्थान में विधानमंडल बनाने के प्रस्ताव शामिल हैं. इन्हें विधान सभा के सदस्यों ने सर्वसम्मति सेकेंद्र सरकार को भेजे थे लेकिन इनमें से ईडब्ल्यूएस आरक्षण के अलावा अब तक किसी प्रस्ताव पर केंद्र सरकार ने निर्णय नहीं लिया है
संविधान की 8वीं अनुसूची में भाषाओं को जोड़ने के प्रस्तावों की ओर आकर्षित करते हुए बताना चाहूंगा कि संसद के दोनों सदनों के लगभग सभी सदस्यगण किसी न किसी भाषा को 8वीं अनुसूची में सम्मिलित किये जाने के पक्ष में हैं। यह पूरे देश के लोगों की मांग है कि उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषा को उसी के देश में मान्यता मिले। सदन में कई बार विभिन्न भाषाओं को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किए जाने पर विभिन्न नियमों के तहत चर्चा की जाती रही है। जब संविधान लागू हुआ,तब 14 भाषायें आठवीं अनुसूची में सम्मिलित थीं। समय-समय पर किए गए संविधान संशोधन के माध्यम से आज 22 भाषायें आठवीं अनुसूची में सम्मिलित हैं। भाषायें क्षेत्रीय हो सकती हैं,लेकिन आज इस तेज रफ्तार युग में कौन आदमी कहां पहुंच जाता है,इसका कोई पता नहीं,सब कुछ वैश्विक हो चुका है। कहीं रहने वाला न जाने कहां नौकरी कर रहा है,कहां व्यावसाय कर रहा है। भारत अनेकता में एकता वाला देश है। यहां बोले जाने वाली भाषा,संस्कृति,पूरे देश की धरोहर रूपी सभ्यता है। भारत में बोलने जाने वाली लगभग सभी भाषाओं का अपना इतिहास है,स्वयं की अपनी-अपनी रचनायें एवं कविताएं,लोक गीत,रागनियां,भजन,धारावाहिक,फिल्में आदि हैं।
15वीं लोक सभा के दौरान तत्कालीन गृह राज्य मंत्री जी ने प्राइवेट मेंबर बिल के अंतर्गत जवाब देते हुए बताया कि केंद्र सरकार ने भाषाओं को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने के प्रस्ताव पर विचार करने के लिए श्री सीताकांत मोहापात्रा की अध्यक्षता में वर्ष 2003 में एक कमेटी बनायी थी। कमेटी ने वर्ष 2004 में रिपोर्ट तैयार कर संस्तुति के साथ मंत्रालय को भेजी थी,जिस पर अभी तक मंत्रालय में कार्यवाही चल रही है। वर्तमान में विभिन्न भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के प्रस्ताव पर संघ लोक सेवा आयोग का परामर्श अपेक्षित है। इस हेतु आयोग ने 17 जुलाई, 2009 को एक उच्च स्तरीय स्थायी समिति का गठन किया था,जिसकी रिपोर्ट अभी तक प्राप्त नहीं हुयी है। रिपोर्ट प्राप्त न होने के कारण केंद्र सरकार निर्णय लेने में असफल है।
भारत सरकार के पास 38 भाषाओं को सम्मिलित करने के प्रस्ताव लंबित हैं,जिसमें राजस्थानी भाषा भी एक है,जिसे देश और विदेश में रहने वाले करीब 10 करोड़ लोग बोलते हैं। इस भाषा का अपना साहित्य, इतिहास, सिनेमा व गायन भी है। महात्मा गांधी जी ने कहा था कि "बच्चा सबसे ज्यादा अपनी मातृ भाषा में सीखता है।" यह भी विदित है कि भाषाओं को मान्यता देने में सरकार को कोई बजट आवंटित नहीं करना होता है। राजस्थानी भाषा का प्रस्ताव वर्ष 2003 में राजस्थान विधान सभा द्वारा संसद को अपनी सहमति के साथ भेज दिया गया था,जिसके बाद सदन में चर्चा के दौरान तत्कालीन गृह मंत्री जी ने 17 दिसंबर, 2006 को भाषा को मान्यता देने के लिए बिल पेश करने का आश्वासन दिया था,लेकिन तब आश्वासनों की सरकार थी,जो 2006 से लेकर अप्रैल 2014 तक आश्वासन ही देती रही। परन्तु इस बार मैं राजस्थानी भाषा में कहना चाहूंगा कि "ई बार राजस्थानी भाषा ने मान्यता मिलणी चायजे"।
‘आजादी के बाद राजऋषि कहे जाने वाले पुरुषोत्तम दास टंडन, हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का भावुक प्रस्ताव लेकर राजस्थान आए थे जिसे तत्कालीन मंत्रीमंडल ने स्वीकार कर लिया. जबकि उस समय यहां के एक प्रतिशत लोग भी हिंदी नहीं बोल पाते थे.’ गर्ग के शब्दों में, ‘तब हमें आश्वासन दिया गया था कि चूंकि राजस्थान ने हिंदी पर बड़ा अहसान किया है इसलिए भविष्य में हमारी भाषा की चिंता की जाएगी. लेकिन यह सिर्फ जुमला ही साबित हुआ.’ बकौल जोगेश्वर गर्ग, ‘कई सौ साल पहले की मरुभाषा से दो भाषाएं निकलीं, एक गुजराती और दूसरी राजस्थानी.’ गर्ग को शिकायत है कि इनमें से मरुभाषा के ग्रंथ कन्हड़देव प्रबंध को अपना बताने वाली गुजराती को तो मान्यता मिल गई, लेकिन राजस्थानी की सुध किसी ने नहीं ली.
इस बात के लिए प्रोफेसर कल्याण सिंह शेखावत देश की कुछ राजनैतिक हस्तियों की भूमिका को कटघरे में खड़ा करते हैं. 1962 से राजस्थानी को मान्यता दिलवाने के लिए संघर्ष कर रहे शेखावत का आरोप है कि नेहरू सरकार में मंत्री और महात्मा गांधी के करीबी केएम मुंशी ने गुजराती और राजस्थानी के एक ही भाषा होने का तर्क देकर गुजराती को मान्यता दिला दी और राजस्थानी के मसले को अधर में छोड़ दिया. शेखावत की मानें तो, ‘बाकी कसर कुछ गैर राजस्थानी अधिकारियों ने इस मामले को उलझाकर पूरी कर दी, ताकि प्रशासनिक सेवाओं से राजस्थान के प्रत्याशियों की उचित दूरी बनी रहे.’
शेखावत के मुताबिक संघ ही नहीं बल्कि राजस्थान के अपने लोक सेवा आयोग (आरपीएससी) में भी राजस्थानी के साथ दोहरा बर्ताव होता है. एक वरिष्ठ अधिकारी के दुराग्रह का ज़िक्र करते हुए शेखावत कहते हैं कि आरपीएससी ने अपने पाठ्यक्रम में राजस्थानी साहित्य और संस्कृति को तो शामिल रखा, लेकिन भाषा के तौर पर राजस्थानी को हटा दिया. शेखावत तंज कसते हैं, ‘शायद यह इकलौता ऐसा उदहारण है जहां भाषा के बिना ही साहित्य पढ़ाया और पूछा जाता है.’
वरिष्ठ पत्रकार श्रीपाल शक्तावत, शेखावत की बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘जब तक एक भाषा रोजगार से नहीं जुड़ेगी तो बचेगी कैसे? जिस तरह उर्दू को मान्यता मिलने के बाद प्रशासनिक सेवाओं में कश्मीर से आने वाले युवाओं की भागीदारी सुखद तौर से बढ़ी. उसी तरह राजस्थानी को भी मान्यता मिलने पर यहां के युवाओं को आगे आने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा.’ युवा कथाकार और प्रोफेसर डॉ अरविंद सिंह आशियां फ़िक्र जताते हुए कहते हैं, ‘राजस्थानी को न तो खाने-कमाने की भाषा बनने दिया गया, न ही यह सत्ता की भाषा बन पाई. इसलिए न तो यह हमारी अगली पीढ़ी तक पहुंच पा रही है और न ही इसमें लोगों की रुचि बची है.’ उनकी इस बात की बानगी हाल ही में जयपुर में आयोजित साहित्य महोत्सव (जेएलएफ) के दौरान दिखी जब राजस्थानी को समर्पित एक सत्र का पांडाल, श्रोताओं की राह तकता ही रह गया. और ऐसे ही एक अन्य सत्र में जो लोग मौजूद थे उनमें से अधिकतर राजस्थानी नहीं, बल्कि वक्ताओं से निजी संबंधों के ख़ातिर पहुंचे जान पड़ रहे थे.
जेएलएफ-2019 में राजस्थानी भाषा को समर्पित एक सत्र में खाली पड़ी कुर्सियां |
राजस्थानी को मान्यता न दिए जाने के पीछे एक बड़ी वजह इसकी ऐतिहासिक प्रमाणिकता से भी जोड़ी जाती है. कई विश्लेषकों के मुताबिक; खुद राजस्थान शब्द का अस्तित्व ही सर्वप्रथम 1949 में इस राज्य के निर्माण के बाद सामने आया था, इसलिए राजस्थानी के पुरातन भाषा होने के दावे को संदेहास्पद माना जाता है.
राजस्थानी साहित्य अकादमी सलाहकार परिषद के संयोजक और पद्मश्री सम्मानित डॉ चंद्रप्रकाश देवल इस तरह की बातों को कोरी लफ्फ़ाजी बताते हैं. देवल के मुताबिक चूंकि वेदों को राजस्थान और पंजाब में बहने वाली सरस्वती नदी के किनारे लिखा गया था इसलिए उनमें राजस्थानी के कई प्रचलित शब्द मिलते हैं. नवीं सदी में लिखे गए जैनकाव्य ‘कुवलयमाला’ के हवाले से देवल कहते हैं कि इस ग्रंथ में जिन भाषाओं का ज़िक्र किया गया उनमें मरुभाखा भी शामिल थी जो कालातंर में मारवाड़ी हो गई यानी मरु प्रदेश में बोली जाने वाली भाषा.
देवल दावा करते हैं कि राजस्थान के प्राच्य विद्या संस्थानों में पौने चार लाख से ज्यादा पाण्डुलिपियां मौजूद हैं जो पूरे हिंदुस्तान में सबसे ज्यादा है. वे आगे जोड़ते हैं, ‘ईस्ट-इंडिया कंपनी के राजनयिक रहे कर्नल जेम्स टॉड (1829) ने अपनी ऐतिहासिक किताब ‘एनल्स एंड एंटीक्विटीज़ ऑफ राजस्थान’ में जिस राजस्थान शब्द का इस्तेमाल किया वह मूलत: ‘रजथान’ शब्द से निकला था, जिसका मतलब रज यानी रेत का स्थान था, न कि राजाओं का स्थान. और यहां की भाषा थी रजथानी जिसके माने भी रेगिस्तान में बोली जाने वाली भाषा से ही था.’
अपना इतिहास सिद्ध करते समय राजस्थानी भाषा के समर्थकों को यह शिकायत भी रहती है कि जिस साहित्य को हिंदी का आदिकाल घोषित किया जाता है, वह असल में राजस्थानी की विरासत है. लेखक और साहित्य अकादमी राजस्थानी के संयोजक अर्जुन देव चारण कहते हैं कि हजार साल पुरानी हमारी रासो परंपरा को हिंदी ने हथिया लिया और हिंदी को बड़ा बताने के लिए राजस्थानी को बोली बना दिया गया.
चारण आगे जोड़ते हैं, ‘राजस्थान का मध्यकाल बेहद समृद्ध है. यहां ऐसे-ऐसे अद्भुत ग्रंथ रचे गए जो वीरता और श्रृंगार जैसे बिलकुल अलग रसों को बेहद खूबसूरती से एक साथ प्रस्तुत करने में सक्षम हैं. अपनी इस बात के पक्ष में वे मध्यकाल के विख्यात कवि ईसरदास बारहठ के ग्रंथ ‘हाला-झाला री कुंडलिया’ से एक संदर्भ उद्धृत करते हैं- चारण अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘कृष्ण भक्तिनी मीराबाई राजस्थानी में ही लिखती थीं. अजीब बात है कि राजस्थान को मीरा की धरती तो कहते हैं, लेकिन उस मीरा का यश बढ़ाने का काम जो भाषा करती है उसे ख़ारिज कर दिया जाता है.’ चारण के शब्दों में, ‘महाराणा प्रताप पर गर्व तो सभी करना चाहते हैं, लेकिन जिस भाषा में वे बोला करते थे, वह स्वीकार नहीं.’
राजस्थानी के इस हाल के लिए भारत विद्याविद (इंडोलॉजिस्ट) श्रीकृष्ण जुगनु ऐसे भी कई लोगों को जिम्मेदार ठहराते हैं जो इस भाषा के कथित झंडाबरदार बने हुए हैं. वे कहते हैं, ‘राजस्थानी को सबसे ज्यादा नुकसान वे लोग पहुंचाते हैं जो अकादमियों में पद और किसी पुरस्कार की लालसा पाले इस भाषा का बीड़ा उठाते हैं. फिर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिलने पर अपने करीबियों को अनुगृहीत करते हैं और पूरे मामले को ठंडे बस्ते में डाल देते हैं.’
राजस्थानी को संवैधानिक दर्ज़ा मिलने में एक प्रमुख अड़चन भारतीय रिजर्व बैंक की तरफ से भी है. बैंक का कहना है कि ‘नोट’ पर अब किसी और भाषा को छापने के लिए जगह नहीं है. हालांकि नोट पर सभी मान्यता प्राप्त भाषाएं यूं भी नहीं छापी जातीं. वहीं, संघ लोक सेवा आयोग की दलील है कि राजस्थानी में प्रश्नपत्र तैयार करने और उत्तर जांचने के लिए उसके पास योग्य जानकार नहीं हैं. इनके अलावा कुछ अन्य केंद्रीय संस्थाएं भी अलग-अलग कारणों का हवाला देकर राजस्थानी (समेत किसी भी नई भाषा) को संवैधानिक दर्ज़ा दिए जाने पर आपत्ति जताती रही हैं. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि भाषा के तौर पर राजस्थानी को मान्यता मिलने की राह में सबसे बड़े रोड़ा किसी और ने नहीं बल्कि खुद राजस्थानियों ने ही लगा रखा है. दरअसल, प्रदेश के जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर इलाकों में मारवाड़ी बोली जाती है, उदयपुर-भीलवाड़ा क्षेत्र में मेवाड़ी. बांसवाड़ा-डूंगरपुर क्षेत्र बागड़ी का है तो जयपुर अंचल ढूंढाड़ी का. कोटा-बूंदी क्षेत्र में हाड़ौती का वर्चस्व है, सीकर-झुंझनू में शेखावाटी का. और भरतपुर-करौली-सवाईमाधोपुर में बृज चलती है. इनमें से मोटे तौर पर मारवाड़ी को ही राजस्थानी माना जाता है और बाकियों को बोली. यही बात कईयों को मंजूर नहीं, खासतौर पर बृज और बांगड़ी के अनुयायियों को. यही कारण है कि राजस्थानी को राजस्थान में राज्य भाषा तक नहीं बनाया जा सका है.
राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रोफेसर शास्त्री कौसलेंद्रदास कहते हैं कि पूरे प्रदेश पर एक क्षेत्र विशेष की बोली थोपने की मांग संकुचित दृष्टि की शिकार हैं. शास्त्री के शब्दों में, ‘राजस्थान में बोली जाने वाली सारी बोलियों का स्त्रोत संस्कृत है. ऐसे में किसी भी बोली को कम या ज्यादा नहीं आंका जा सकता है.’ वे कहते हैं, ‘राजस्थान हिंदी साहित्य अकादमी प्रत्येक वर्ष सभी बोलियों के लेखकों को भाषागत पुरस्कार देती रही है. इसलिए एक बोली को भाषा बनाने की मांग ठीक नहीं.’
राजस्थानी भाषा संकल्प विरोधी समिति के केंद्रीय महामंत्री और हिंदी साहित्य समिति भरतपुर के सचिव राजेंद्र अग्रवाल कहते हैं कि जो संकल्प प्रदेश सरकार ने 2003 में भेजा था, उसमें बृज को राजस्थानी की बोली बताया था. जबकि बृज का राजस्थानी से दूर-दराज तक कोई लेना देना नहीं. अग्रवाल का कहना है कि अगर राजस्थान में कभी राज्यभाषा बनने की स्थिति पैदा हुई तो एक नहीं बल्कि आठ भाषाएं बनानी पड़ेंगी. राजस्थान के बारे में यह भी दिलचस्प तथ्य है कि 1927 में भरतपुर में आयोजित एक सम्मेलन में यहां की तत्कालीन भरतपुर और अलवर रियासतों ने हिंदी को अपनी राष्ट्रभाषा घोषित किया था.
राजस्थान उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश पानाचंद जैन का दावा है कि बोलियां बेशक हमारे यहां कई हैं, लेकिन राजस्थानी नाम की कोई भाषा नहीं है. कोटा से ताल्लुक रखने वाले जैन आगे कहते हैं, ‘राजस्थान लैंग्वेज एक्ट- 1956 में केवल हिंदी भाषा का उल्लेख किया है. एक तरफ हम हिंदी को विश्व की भाषा बनते देखना चाहते हैं. दूसरी तरफ उसे चुनौती देते हैं. हिंदी को नुकसान पहुंचाकर राजस्थानी का उत्थान नहीं हो सकता.’ राजस्थान में राज्यभाषा घोषित करने से जुड़ी प्रशासनिक व कानूनी परेशानियों का ज़िक्र करते हुए वे सवालिया लहजे में कहते हैं, ‘क्या गजट पांच भाषाओं में तैयार होंगे? क्या अदालतों में बयान बांग्ड़ी या बृज में रिकॉर्ड किए जा सकते हैं? क्या मुंसिफ मेवाड़ी में फैसला देंगें?’ वे जोड़ते हैं, ‘पांच-सात बोलियों को मिलाकर राजस्थानी बना दी गई है. न इसका कोई व्याकरण है और न ही कोई ग्रंथ.’
हालांकि राजस्थानी के अन्य समथर्कों की तरह डॉ गीता सामोर भी जैन की बातों से इत्तेफाक़ नहीं रखतीं. सामोर राजस्थान विश्वविद्यालय में हिंदी-राजस्थानी विभाग की प्रोफेसर हैं. मशहूर भाषा विज्ञानी सुनीति कुमार चटर्जी के हवाले से वे बताती हैं कि भाषा विज्ञान राजस्थानी को एक स्वतंत्र भाषा मानता है. सामोर के शब्दों में, ‘राजस्थानी के पास अपना समृद्ध शब्दकोश मौजूद है जिसमें दो लाख से ज्यादा शब्द मौजूद हैं. एक अलग व्याकरण है. विस्तृत साहित्य है. हर भाषा की तरह इसकी भी बोलियां हैं जो इसे वैसे ही समृद्ध करती हैं, जैसे पेड़ को शाखाएं.’ सामोर सवाल उठाती हैं कि जब पंजाबी, मराठी, गुजराती से हिंदी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा तो राजस्थानी कैसे पहुंचा सकती है.
वहीं, प्रदेश के एक वरिष्ठ पत्रकार का इस बारे में कहना है कि भावनात्मक तौर पर राजस्थानी को राज्यभाषा घोषित करने से जुड़ी बातें अच्छी लगती हैं. लेकिन इसे व्यवहारिकता में ला पाना मुश्किल है. वे कहते हैं, ‘नई पीढ़ी राजस्थानी भूल चुकी है. बच्चा अपने घर से स्वभाविक तौर पर राजस्थानी सीखे, इससे बेहतर कुछ नहीं. लेकिन इसे शैक्षणिक बाध्यता देने से नुकसान होगा. इतने प्रयास और समय में बच्चे कोई प्रोफेशनल लैंग्वेज सीख सकते हैं.’