नगा विद्रोह: चर्चा में क्यों? नागालैंड सुखी नहीं, अशांत है!

हम सभी ने यह कहावत सुनी है कि एक छोटा परिवार सुखी परिवार होता है। लेकिन महज 22 लाख की आबादी वाला नागालैंड सुखी नहीं, अशांत है।  ऐलानिया तौर पर, कानूनी तौर पर अशांत है। विद्रोह या उग्रवाद शब्द का जिक्र होते ही हमारे दिमाग में कश्मीर का नाम सबसे पहले कौंध उठता है। सेना के द्वारा वहां दिन रात अभियान चलाया जाता है लेकिन मुसीबत जड़ से नहीं जाता है। अगर आपको ये कहूं कि हिन्दुस्तान की सबसे पुरानी और खूंखार उग्रवाद कश्मीर में नहीं बल्कि वहां से 2 हजार किलोमीटर दूर नगालैंड में है तो आपको थोड़ा अटपटा जरूर लगेगा। लेकिन सच्चाई यही है कि नागालैंड की अस्थिरता भारत के आज़ाद होने से पहले से चली आ रही है। आज हमने मसले की बुनियाद, शुरुआती दिक्कतें, बाद में कौन-कौन से गुट हुए, क्या समझौते हुए और वे समझौते कैसे टूटे इन सारी चीजों की विस्तार से विचार विमर्श करेंगे l कुल मिलाकर कहे तो हम नागा आंदोलन का पूरा इतिहास टटोलकर इससे जुड़े समझौते की जानकारी, इसकी अहमियत समझाने की कोशिश करेंगे l इसके साथ ही वर्तमान समय में इस विषय पर चर्चा करने की क्या वजह है इसके बारे में भी आपको बताएंगे........

 

 

नगा विद्रोह: चर्चा में क्यों?

 

हाल ही में नगालैंड सरकार ने सभी नगा राजनीतिक समूहों और चरमपंथी समूहों से क्षेत्र में एकता, सुलह और शांति स्थापित करने में सहयोग की अपील की है। केंद्र सरकार और नगा चरमपंथी समूहों के दो वर्गों के बीच शांति प्रक्रिया बीते लगभग 23 वर्ष से अधिक समय से लंबित है।

 

 

नगा समुदाय

 

नगा पहाड़ी नृजातीय समुदाय हैं जिनकी आबादी लगभग 2.5 मिलियन (नगालैंड में 1.8 मिलियन, मणिपुर में 0.6 मिलियन और अरुणाचल में 0.1 मिलियन) है और वे भारतीय राज्य असम एवं बर्मा (म्याँमार) के मध्य सुदूर एवं पहाड़ी क्षेत्र में निवास करते हैं। बर्मा (म्याँमार) में भी नगा समूह मौजूद हैं। नगा एक जनजाति नहीं है, बल्कि एक जातीय समुदाय है, जिसमें कई जनजातियाँ शामिल हैं, जो नगालैंड और उसके पड़ोसी क्षेत्रों में निवास करती हैं। नगा इंडो-मंगोलॉयड वंश से संबंध रखते हैं। नगा समुदाय में कुल 19 जनजातियाँ शामिल हैं- एओस, अंगामिस, चांग्स, चकेसांग, कबूइस, कचारिस, खैन-मंगस, कोन्याक्स, कुकिस, लोथस (लोथास), माओस, मिकीर्स, फोम्स, रेंगमास, संग्तामास, सेमस, टैंकहुल्स, यामचुमगर और ज़ीलियांग।

 

 

नगा समुदाय की उत्तर-पूर्व की भौगोलिक अवस्थिति

 

पूर्वोत्तर में सभी नगा-आबादी क्षेत्रों को एक प्रशासनिक केंद्र के अंतर्गत लाने के लिये सीमाओं का पुनर्निर्धारण किया गया। इसमें अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर तथा म्याँमार के भी विभिन्न क्षेत्र शामिल हैं।

 

Nagaland

 

 

 

नगा विद्रोह की पृष्ठभूमि / अंग्रेजों का भारत आगमन और सरकटिया प्रजाति से सामना:

 

भारत के पूर्वी इलाके पर आजादी से पहले राजाओं का शासन हुआ करता था। यह इलाका कई तरह की जनजातियों की बसावट से भरा हुआ था। जिनकी जीवनशैली एक दूसरे से काफी भिन्न थी। यानी भाषा, रहन-सहन, परंपराओं, निष्ठाओं और आस्थाओं में यहां कि जनजातियां  एक-दूसरे से अलग थी। अंग्रेजों ने भारत आगमन के बाद पूर्व की दिशा में रूख करते हुए 1826 में असम की ओर कदम बढ़ाया। संसाधनों को हथियाने की चाह में नागा हिल्स के इलाकों में उनके कदम पड़े। इलाके पर कब्जे के लिए अंग्रेजों ने वर्तमान के नागालैंड की राजधानी कोहिमा में छावनी बनाई। 1826 से 1865 तक के 40 वर्षों में अंग्रेज़ी सेनाओं ने नागाओं पर कई तरीकों से हमले किए, लेकिन हर बार उन्हें उन मुट्ठी भर योद्धाओं के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा। नागाओं के ऐसे पराक्रम को देख कर सबके मन में उनके प्रति घृणा और भय का भाव भरने के लिए अंग्रेजों ने उन्हें ‘सरकटिया जनजाति कहा। एक वक्त में इस कबीलों में सर काटने की परंपरा हुआ करती थी। एक नागा के लिए अपने दुश्मन का सिर काटने से ज्यादा वीरती की और कोई बात नहीं होती थी। 

 

नगा हिल्स वर्ष 1881 में ब्रिटिश भारत का हिस्सा बना। बिखरी हुई नगा जनजातियों को एक साथ लाने के प्रयास के परिणामस्वरूप वर्ष 1918 में ‘नगा क्लब’ का गठन किया गया। इस क्लब ने समग्र समुदाय के बीच एक प्रकार की ‘नगा राष्ट्रवादी’ भावना को जन्म दिया। इस क्लब को वर्ष 1946 में ‘नगा नेशनल काउंसिल’ (NNC) में रूपांतरित कर दिया गया। अंगामी ज़ापू फिज़ो के नेतृत्व में ‘नगा नेशनल काउंसिल’ ने 14 अगस्त, 1947 को नगालैंड को एक स्वतंत्र राज्य घोषित किया और मई 1951 में एक "जनमत संग्रह" कराया, जिसमें दावा किया गया कि 99.9% नगाओं ने ‘संप्रभु नगालैंड’ का समर्थन किया है। नगालैंड ने दिसंबर 1963 में राज्य का दर्जा हासिल किया। नगालैंड का गठन असम के नगा हिल्स ज़िले और तत्कालीन ‘नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी’ (NEFA) प्रांत (अब अरुणाचल प्रदेश) के हिस्सों को मिलाकर किया गया था। वर्ष 1975 में शिलॉन्ग समझौते के तहत ‘नगा नेशनल काउंसिल’ (NNC) और ‘नगा संघीय सरकार’ (NFG) के कुछ गुट हथियार छोड़ने पर सहमत हुए। थिंजलेंग मुइवा (जो उस समय चीन में थे) की अगुवाई में लगभग 140 सदस्यों के एक गुट ने शिलॉन्ग समझौते को मानने से इनकार कर दिया। इस गुट ने वर्ष 1980 में ‘नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड’ (NSCN) का गठन किया।  वर्ष 1988 में एक हिंसक झड़प के बाद ‘नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड’ (NSCN) का विभाजन NSCN (IM) और NSCN (K) में हो गया। एक ओर समय के साथ ‘नगा नेशनल काउंसिल’ कमज़ोर पड़ने लगी तथा वर्ष 1991 में लंदन में फिज़ो की मृत्यु हो गई, वहीं NSCN (IM) की ताकत और बढ़ने लगी एवं उसे इस क्षेत्र में ‘सभी विद्रोहियों की जननी’ के रूप में देखा जाने लगा।

 

 

Naga Peace Accord

 

 

भारत के प्रति अलगाववाद तथा उग्रता का बीजारोपण

 

इसके बाद अंग्रेज़ प्रशासकों ने 1866 में एक नवीन कूटनीति के तहत पर्वतीय क्षेत्र को एक अलग ज़िला बनाकर वहां सामाजिक विकास और शिक्षा के प्रचार के बहाने से चर्च के मिशनरियों ने लोगों के बीच काम करते हुए उन्हें ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया। अंग्रेजो ने नागों को ईसाइयत के प्रति संतुष्ट रखने के लिए हर तरह के प्रयास किये। धीरे-धीरे ईसाई मिशनरी इसमें सफल हुई और उनके प्रति नागाओं में अत्यंत आदर एवं कृतज्ञता का भाव देखा गया। परिणामस्वरूप नागा जन-समुदाय में भारत के प्रति अलगाववाद तथा उग्रता का बहुत ही गहन बीजारोपण हो गया। 1881 में नागा हिल्स आधिकारिक रूप से गुलाम भारत का हिस्सा बन गए थे। लेकिन अंग्रेज़ों के दावे को नागाओं ने कभी माना नहीं, बड़ी लड़ाइयां छिट-पुट झड़पों में बदलीं, लेकिन बंद नहीं हुईं। 1918 में नागा क्लब बना, जिसने 1929 में आए साइमन कमीशन से कहा कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया जाए। हम पुराने वक्त में जैसे रहते आए थे, वैसे ही रहना चाहते हैं। 

 

 

नागालैंड ने आजादी के लिए जनमत संग्रह करा लिया

 

जनमत संग्रह का जिक्र जब भी होता है तो कश्मीर और जवाहर लाल नेहरू का जिक्र भी जरूर होता है। लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब नागालैंड ने अपनी आजादी के लिए रैफरेंडम करा लिया था। भारत की आजादी के वक्त जब पूरे मुल्क का ध्यान अलग होकर बने पाकिस्तान पर था। लेकिन उत्तर पूर्व के कई राज्य अलग होने पर अड़े थे। 1951 में नगा गुटों ने तो एक जनमत संग्रह भी करवा लिया था। नगा नेशनल काउंसिल यानी एनएनसी के नेता अंगामी जापू इसको लेकर सबसे ज्यादा मुखर थे। कहा जाता है कि इसमें 99 फीसदी वोट अलग मुल्क की हिमाकत करते नजर आए थे। रायशुमारी में हिन्दुस्तान से अलग मुल्क बने रहने की चाह रखने की बात सामने आई जिसे भारत सरकार ने मानने से इनकार कर दिया। कहा गया कि आधिकारिक तौर पर नगा इलाके असम का हिस्सा हैं। 

 

 

नगा समूहों की मांग / इन सबके बीच असल मुद्दे क्या हैं?

 

जानकार नगा मुद्दे को बेहद जटिल बताते हैं और एनएससीएन (आईएम) का नेतृत्व मणिपुर का एक तंगखुल कर रहा है, जिसके लिए ग्रेटर नगालिम की मांग को छोड़ना मुश्किल है। लेकिन भारत उस मांग को स्वीकार नहीं कर सकता है, और बीच का रास्ता निकालना होगा, जिसमें कुछ समय लग सकता है। सूत्रों ने कहा कि नागालैंड के लिए अलग संविधान को स्वीकार करने की कोई बात कभी हुई ही नहीं न ही इस पर कभी चर्चा हुई। सूत्रों की माने तो झंडे को लेकर वास्तव में, एक राय थी लेकिन कश्मीर में 5 अगस्त, 2019 के फैसले के बाद यह बात सिरे नहीं चढ़ती।  नगा समूहों की प्रमुख मांग एक वृहत नगालैंड अर्थात् नगालिम (संप्रभु राज्य का दर्जा) रही है, यानी इसमें एक पृथक नगा येजाबो (संविधान) तथा एक पृथक झंडे की मांग भी शामिल है।

 

 

वर्तमान मुद्दे

 

2015 के समझौते ने कथित तौर पर शांति प्रक्रिया को समावेशी बना दिया, लेकिन इसने केंद्र सरकार द्वारा आदिवासी और भू-राजनीतिक आधार पर नगाओं का विभाजन कर उनके शोषण किये जाने का संदेह उत्पन्न किया।

 

'ग्रेटर नगालिम' (Greater Nagalim) के क्षेत्रीय एकीकरण की मांग के मद्देनज़र मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश के निकटवर्ती नगा-आबादी क्षेत्रों के एकीकरण का मुद्दा विभिन्न प्रभावित राज्यों में हिंसक संघर्ष को बढ़ावा देगा।

 

नगालैंड में शांति प्रक्रिया के मार्ग में एक और बड़ी बाधा यह है कि यहाँ एक से अधिक संगठनों का अस्तित्व है, जिनमें से प्रत्येक नगाओं का प्रतिनिधि होने का दावा करता है।

 

 

नागा पीपुल्स कन्वेंशन और राज्य का गठन

 

प्रथम नागा पीपुल्स कन्वेंशन के प्रयासों के परिणामस्वरूप तत्कालीन भारत सरकार ने भारतीय संविधान की छठी अनुसूची में संशोधन और नागा हिल्स तुएनसांग क्षेत्र नाम से असम से अलग एक प्रशासनिक इकाई बनाई। डॉ. इम्कोन्ग्लिबा एओ और 7 अन्य सदस्यों के नेतृत्व में एक संपर्क समिति का गठन किया। यह कार्य बहुत ही जोखिम भरा था जिसमें कुछ सफलता के साथ-साथ कई लोगों की शहादत भी हुई । इसके बाद अक्टूबर 1959 में तृतीय नागा पीपुल्स कन्वेंशन हुआ और राजनीतिक समाधान के लिए एक मसौदा समिति का गठन किया गया जिसने 16 सूत्री प्रस्ताव तैयार कर भारत सरकार को सौंपा। इस प्रस्ताव में नागा हिल्स तुएनसांग क्षेत्र (NHTA) के रूप में जाने वाले प्रदेश को भारतीय संघ में नगालैंड के नाम से जानने की परिकल्पना की गई तथा सरकार को आश्वासन दिया कि सभी नागा जनसमुदाय अपनी संस्कृति और परंपराओं के अनुसार देश के विकास में अपनी भूमिका पूरी तरह से निभाएँगे।

 

शान्ति प्रिय इन सम्मेलनों के कठिन और लंबे संघर्षों के परिणामस्वरूप 1960 में पंडित नेहरू और नागा नेताओं के बीच बातचीत सही दिशा में आगे बढ़ी और नागालैंड को राज्य बनाने की कवायद शुरू की गई। शांतिपूर्ण और विकसित नागालैंड का सपना देखने वाले डॉ. इम्कोन्ग्लिबा एओ की विद्रोही विभाजनकारी नागाओं ने 22 अगस्त 1961 को मुकोचुंग में हत्या कर दी। अंततः 1962 में संसद में नागालैंड एक्ट पास हुआ और 1 दिसंबर 1963 को नागालैंड भारत का 16वां राज्य बन गया।

 

 

अफस्पा और धारा 371 A

 

आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट जानी अफस्पा कश्मीर के लिए नहीं बल्कि नागालैंड के लिए लाया गया था। 1958 में अफस्पा आने के बाद नागा गुटों पर दबाव बढ़ा तो फिजो 1960 में पूर्वी पाकिस्तान छोड़कर लंदन चले गए। 1964 में नागालैंड विधानसभा के लिए चुनाव भी करा लिए गए. नागा जनजातियों का दिल जीतने के लिए केंद्र ने नागालैंड को कई मामलों में छूट दी. देश के संविधान में संशोधन करके आर्टिकल 371 A जोड़ा गया. इसके मुताबिक केंद्र का बनाया कोई भी कानून अगर नागा परंपराओं (माने नागाओं के धार्मिक-सामाजिक नियम, उनके रहन-सहन और पारंपरिक कानून) से संबंधित हुआ, तो वो राज्य में तभी लागू होगा जब नागालैंड की विधानसभा बहुमत से उसे पास कर देगी (इसी व्यवस्था के चलते नागालैंड में नगरीय निकाय चुनावों में औरतों को 33 % आरक्षण देने में समस्या आ रही है. नागा जनजातियों में औरतों का राजनीति में उतरना ठीक नहीं समझा जाता)।

 

 

नागा शांति प्रक्रिया

 

वर्षों की बातचीत के बाद, 1976 में नागालैंड के भूमिगत समूहों के साथ शिलांग समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे, लेकिन इसे कई शीर्ष एनएनसी नेताओं ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि यह नागा संप्रभुता के मुद्दे को संबोधित नहीं करता है और नागाओं को भारतीय संविधान को स्वीकार करने के लिए मजबूर करता है। पांच साल बाद, इसाक चिशी स्वू, थुइंगलेंग मुइवा और एस एस खापलांग एनएनसी से अलग हो गए और सशस्त्र संघर्ष जारी रखने के लिए एनएससीएन का गठन किया। 1988 में, एनएससीएन फिर से इसाक और मुइवा के नेतृत्व में एनएससीएन (आईएम) और खापलांग के नेतृत्व में एनएससीएन (के) में विभाजित हो गया। NSCN (IM) में उखरूल, मणिपुर (जिससे मुइवा संबंधित है) की तंगखुल जनजाति और नागालैंड की सेमा जनजाति (जिससे इसाक का जन्म हुआ) का प्रभुत्व है। 1997 में NSCN (IM) ने भारत सरकार के साथ युद्धविराम में प्रवेश किया जिसने अंतिम समाधान की आशा को जन्म दिया।

 

 

अटल की बात नागाओं के दिल को छू गई

 

अटल बिहारी वाजपेयी वो पहले नेता थे, जिन्होंने बतौर ‘भारत संघ के प्रधानमंत्री’ नागाओं की अलहदा पहचान और इतिहास का ज़िक्र किया। साथ ही अटल ने ये माना कि इंसरजेंसी कुचलने में फौज से कुछ गलतियां भी हुईं। अपनी पहचान को लेकर भावुक और लंबे समय से बंदूक के साये में जी रहे नागाओं को ये बात बहुत पसंद आई।

 

 

बाद के वर्षों में क्या हुआ?

 

करीब 100 दौर की बातचीत हो चुकी है। अगस्त 2015 में समूह ने नागा शांति समझौते के लिए भारत सरकार के साथ एक रूपरेखा समझौते पर हस्ताक्षर किए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में तीन अगस्त, 2015 को मुइवा के साथ प्रारूप समझौते पर दस्तखत किये थे। 31 अक्टूबर 2019 को इस शांति समझौते को लागू करने की समय सीमा निर्धारित की थी।  2019 में केंद्र सरकार ने आरएन रवि के नगा समझौते को अंजाम तक लाने में किए गए प्रयासों को देखकर उन्हें नगालैंड का राज्यपाल नियुक्त कर दिया। जनवरी 2020 में सरकार ने आईबी के विशेष निदेशक अक्षय मिश्रा को भी इसमें शामिल किया। रवि और एनएससीएन (आई-एम) के बीच तनावपूर्ण संबंधों के बाद अक्षय मिश्रा ने वार्ता को जारी रखा था। जनवरी 2020 से अक्षय मिश्रा ही नागा शांति समझौते को अंतिम रूप देने के लिए नागा समूहों के साथ बातचीत करते रहे। 

 

 

चीजें कैसे उलझती गई

 

अक्टूबर 2019 में, नागा समाज के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के बाद, रवि ने कहा कि एनएससीएन (आईएम) ने "अलग नागा राष्ट्रीय ध्वज और संविधान के विवादास्पद प्रतीकात्मक मुद्दों" को उठाकर "निपटान में देरी के लिए एक विलंबित रवैया अपनाया"। रवि ने एनएससीएन (आईएम) को एक "सशस्त्र गिरोह" बताते हुए मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो को एक तीखा पत्र लिखा, और उस पर "समानांतर सरकार" चलाने और जबरन वसूली में शामिल होने का आरोप लगाया। जवाब में, एनएससीएन (आईएम) ने यह कहते हुए अपनी स्थिति सख्त कर ली कि नागा ध्वज और संविधान पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता है। इसके साथ ही , एनएससीएन (आईएम) की तरफ से दावा किया कि रूपरेखा समझौते में असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में सभी नगा बसे हुए क्षेत्रों के एकीकरण का विचार शामिल था। इसके साथ ही रवि पर उन प्रमुख शब्दों को हटाकर दस्तावेज़ को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगाया गया जो सुझाव देते थे कि नागालैंड एक संप्रभु के रूप में भारत के साथ सह-अस्तित्व में रहेगा। रवि ने अलग ध्वज और संविधान की मांग को सिरे से खारिज कर दिया और चेतावनी दी कि "इस महान राष्ट्र को विघटित करने का कोई भी दुस्साहस बर्दाश्त नहीं किया जाएगा"। आईएम की तरफ से रवि के कार्यों को "शरारतपूर्ण" बताते हुए उन्हें हटाने की मांग की। इस बीच रवि ने अन्य नागा समूहों के साथ बातचीत जारी रखी और घोषणा की कि समझौते पर एनएससीएन (आईएम) के साथ या उसके बिना हस्ताक्षर किए जाएंगे। इसी माह के प्रारंभ में रवि का तमिलनाडु के राज्यपाल के तौर पर तबादला कर दिया गया। अब बीते दिनों तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने नगा शांति वार्ता के वार्ताकार पद से त्यागपत्र दे दिया और उसे तत्काल प्रभाव से स्वीकार कर लिया गया है। गृह मंत्रालय ने यह जानकारी दी। रवि 2014 से नगा उग्रवादी संगठन एनएससीएन-आईएम के साथ शांति वार्ता कर रहे थे। गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा, ‘‘ नगा शांति प्रक्रिया के वार्ताकार के रूप में आरएन रवि का त्यागपत्र उनके द्वारा आज सौंपा गया जिसे भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया है। 

 

 

शांति पहल

 

शिलॉन्ग समझौता (1975)

 

शिलॉन्ग में एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये गए जिसमें NNC गुट ने हथियार छोड़ने पर सहमति जताई। हालाँकि कई नेताओं ने समझौते को स्वीकार करने से इनकार कर दिया, जिसके कारण NNC का विभाजन हो गया।

 

संघर्ष विराम समझौता (1997)

 

NSCN-IM ने भारतीय सशस्त्र बलों पर हमलों को रोकने के लिये सरकार के साथ संघर्ष विराम समझौते पर हस्ताक्षर किये। इसके परिणामस्वरूप सरकार ने सभी उग्रवाद विरोधी गतिविधियों/अभियानों को रोक दिया।

 

फ्रेमवर्क समझौता (2015) 

 

इस समझौते में भारत सरकार ने नगाओं के अनोखे  इतिहास, संस्कृति और स्थिति तथा उनकी भावनाओं एवं आकांक्षाओं को मान्यता दी। हाल ही में राज्य सरकार ने नगालैंड के स्थानीय निवासियों का एक रजिस्टर (RIIN) बनाने का निर्णय लिया है लेकिन बाद में विभिन्न गुटों के दबाव के कारण निर्णय को रोक दिया गया।

 

 

आगे की राह / आगे का रास्ता क्या है?

 

केंद्र को दीर्घकालीन शांतिवार्ता वाले पहलुओं के लिये विद्रोहियों के सभी गुटों और समूहों के साथ बातचीत करनी चाहिये। इसके अलावा उनकी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और क्षेत्रीय सीमा को ध्यान में रखा जाना चाहिये। किसी भी व्यवस्थित प्रक्रिया को अपनाते समय उनके सामाजिक-राजनीतिक सद्भाव, आर्थिक समृद्धि और राज्यों के सभी जनजातियों तथा नागरिकों के जीवन एवं संपत्ति की सुरक्षा होनी चाहिये।

 

इस मुद्दे से निपटने का एक अन्य मार्ग जनजातीय समूहों में शक्तियों का अधिकतम विकेंद्रीकरण और शीर्ष स्तर पर न्यूनतम केंद्रीयकरण हो सकता है। इससे शासन को जनोन्मुख बनाने और वृहद् विकास परियोजनाओं को शुरू करने की दिशा में आसानी होगी।

 

इन राज्यों में नगा आबादी वाले क्षेत्रों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की जा सकती है और इन क्षेत्रों के लिये उनकी संस्कृति एवं विकास हेतु अलग से बजट आवंटन भी किया जा सकता है। इसके अलावा केंद्र को यह ध्यान रखना चाहिये कि विश्व भर में अधिकांश सशस्त्र विद्रोह या तो संपूर्ण जीत या व्यापक हार में समाप्त नहीं होते हैं, बल्कि 'समझौता' जैसे  एक ग्रे ज़ोन में समाप्त होते हैं।

 

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