Ashok Kumar Pandey ने जम्मू कश्मीर पर दो महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं, वह हैं, 'कश्मीरनामा' और 'कश्मीर और पंडित'। “ कश्मीरी पंडित यानी हर अपराध की ढाल ”
कश्मीर पर एक ही सवाल किया जा सकता है - जब पंडितों को घाटी से निकाला गया तो आप कहाँ थे ! अब मैं तो अक्सर पलट के पूछ लेता हूँ कि भाई मैं तो देवरिया में था आप कहाँ थे! वैसे जब यह हुआ तो सरकार वीपी सिंह की थी, भाजपा का भी समर्थन था उसे और जगमोहन साहब को भेजा उसी के कहने पर गया था। लेकिन थोड़ा इस पर बात कर लेनी ज़रूरी है।
1989 के हालात क्या थे? सही या ग़लत लेकिन सच यही है कि पूरी घाटी में आज़ादी का माहौल बना दिया गया था। जे के एल एफ के नेतृत्व में हुए इस आंदोलन के पीछे बहुत कुछ था। आंदोलन तो साठ के दशक में अल फतेह ने भी शुरू किया लेकिन उसका कोई ख़ास असर न हुआ था। 1990 के आन्दोलन में उभार बड़ा था। इस पागलपन में जो उन्हें भारत समर्थक लगा, उसे मार दिया गया। दूरदर्शन के निदेशक लासा कौल मारे गए क्योंकि दूरदर्शन को भारत का भोंपू कहा गया तो मुसलमानों के धर्मगुरु मीरवाइज़ मारे गए क्योंकि वे आतंकवाद को समर्थन नहीं दे रहे थे। मक़बूल बट्ट को फांसी की सज़ा सुनाने वाले नीलकांत गंजू मारे गए तो हज़रत साहब के बाल को मिल जाने पर वेरिफाई करने वाले 84 साल के मौलाना मदूदी भी मारे गए। भाजपा के टीका लाल टिपलू मारे गए तो नेशनल कॉन्फ्रेंस के मोहम्मद यूसुफ हलवाई भी मारे गए। कश्मीरी पंडित आई बी के लोग मारे गए तो इंस्पेक्टर अली मोहम्मद वटाली भी मारे गए। सूचना विभाग में डायरेक्टर पुष्कर नाथ हांडू मारे गए तो कश्मीर यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रो मुशीरुल हक़ भी मारे गए। पंडितों के माइग्रेशन का विरोध कर रहे हॄदयनाथ वांचू मारे गए तो पूर्व विधायक मीर मुस्तफा और बाद में अब्दुल गनी लोन भी मारे गए। जिन महिला नर्स सरला देवी की हत्या और बलात्कार की बात होती है उन पर भी मुखबिर होने का आरोप लगाया गया था।
तो वह पागलपन का दौर था। लेकिन क्या सारे मुसलमान ख़िलाफ़ थे पंडितों के? सारे हत्यारे थे? सोचिये 96 प्रतिशत मुसलमान अगर 4 प्रतिशत पंडितों के वाकई ख़िलाफ़ हो जाते तो बचता कोई? जाहिर है इस पागलपन में बहुत से लोग निरुद्देश्य भी मारे गए। बिट्टा कराटे जैसे लोगों ने साम्प्रदायिक नफ़रत में डूब कर निर्दोषों को भी मारा।
पलायन क्यों हुआ? ज़ाहिर है इन घटनाओं और उस माहौल में पैदा हुए डर और असुरक्षा से। जगमोहन अगर इसके लिए जिम्मेदार नहीं थे तो भी यह तो निर्विवाद है कि इसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की। बावजूद इसके लगा किसी को नहीं था कि वे वापस नहीं लौटेंगे। सबको लगा कुछ दिन में माहौल शांत होगा तो लौट आएंगे। अगर बदला जैसा कुछ होता है तो कश्मीरी मुसलमानों ने कम नहीं चुकाया है। हज़ारो बेनाम कब्रें हैं। उसी समय पचास हज़ार मुसलमानों को भगा दिया गया कश्मीर से। एक पूरा संगठन है उन परिवारों का जिनके सदस्य गिरफ्तारी के बाद लौटे नहीं। हज़ारो लोग मार दिए गए। इनमें भी सारे दोषी तो नहीं होंगे। आंदोलन भी 1999-2000 तक बिखर ही गया था। शांति उसके बावजूद कायम न हो सकी। उन हालात से भागकर आये पंडितों को तो देश की सहानुभूति मिली, मुसलमान बाहर भी आये तो शक़ की निगाह से देखे गए, मारे गए पीटे गए। वे कहाँ जाते!
ख़ैर अब भी हैं वहाँ 800 परिवार पंडितों के। श्रीनगर से गांवों तक अनेक का इंटरव्यू किया है। बहुत सी बातें हैं, सब यहां कैसे कह सकता हूँ। जल्दी ही किताब में आएगी। एक किस्सा सुन लीजिए। दक्षिण कश्मीर के एक पंडित परिवार ने बताया कि पड़ोस के गांव के एक नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता ने कहा जब तक मैं हूँ आपलोग कहीं नहीं जाएंगे। उसी दिन उसे आतंकवादियों ने मार दिया। अगली रात सारे पंडित चले गए। वह रह गए अपने बीमार चाचा के साथ।
पलायन त्रासदी थी। त्रासदी का जवाब दूसरी त्रासदी नहीं होता। आप अपना एजेंडा पूरा कर लें लेकिन जब तक कश्मीर शांत न होगा पंडित लौटेंगे नहीं। उसके बाद भी लौटेंगे, शक़ है मुझे। बस चुके हैं वे दूसरे शहरों में। ख़ैर --एक आख़िरी बात - लोग पूछते हैं पंडित आतंकवादी क्यों नहीं बने! भई 1947 में लाखों मुसलमान पाकिस्तान गए, वे आतंकवादी नहीं बने। लाखों हिन्दू भारत आये, वे भी आतंकवादी नहीं बने। गुजरात मुसलमान आतंकवादी नहीं बने। बंदूक सत्ता के दमन के ख़िलाफ़ उठती है। पण्डितों ने सत्ता का दमन नहीं समर्थन पाया। फिर क्यों बनते वे आतंकवादी और किसकी हत्या करते! और हाँ उनके बीच भी ऐसे लोगों का एक बड़ा हिस्सा है जो जानते हैं और समझते हैं हक़ीक़त। वे मुसलमानों से बदला नहीं कश्मीर में अमन चाहते हैं। बाक़ी के लिए मेरी किताब "#कश्मीरऔरकश्मीरीपंडित" पढ़ सकते हैं।
फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक तरह से इतिहास की उन ‘फाइल्स’ को पलटने की कोशिश है जिनमें भारत देश में वीभत्स नरसंहारों के चलते हुए सबसे बड़े पलायन की कहानी है। देश में कश्मीर पंडित ही शायद इकलौती ऐसी कौम है जिसे उनके घर से आजादी के बाद बेदखल कर दिया गया है और करोड़ों की आबादी वाले इस देश के किसी भी हिस्से में कोई हलचल तक न हुई। जिस कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक होने वाले देश का दम बार बार बड़े बड़े नेता भरते रहे हैं, उसके हालात की ये बानगी किसी भी इंसान को सिहरा सकती है। कोई 32 साल पहले शुरू होती फिल्म की इस कहानी की शुरुआत ही एक ऐसे लम्हे से होती है जो क्रिकेट के बहाने एक बड़ी बात बोलती है। घाटी में जो कुछ हुआ वह दर्दनाक रहा है। उसे पर्दे पर देखना और दर्दनाक है। आतंक का ये एक ऐसा चेहरा है जिसे पूरी दुनिया को दिखाना बहुत जरूरी है। कहानी कहने में इसके एक डॉक्यूमेंट्री बन जाने का भी खतरा था, लेकिन सच्चाई लाने के लिए खतरों से किसी को तो खेलना ही होगा।
द कश्मीर फाइल्स
सिनेमा के लिहाज से ये फिल्म ‘शिंडलर्स लिस्ट’ तक पहुंचने की कोशिश करती फिल्म है। यहां का नरसंहार भले उस पैमाने सा ना हो लेकिन इसका भयानक और वीभत्स एहसास उससे कुछ कम भी नहीं है। फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ पूरी तरह से विवेक अग्निहोत्री की फिल्म है। फिल्म की रिसर्च इतनी तगड़ी है कि एक बार फिल्म शुरू होती है तो दर्शक फिर इससे आखिर तक देखें बिना बाहर निकल नहीं पाते। वे एंड क्रेडिट्स के वक्त एकदम गुमसुम और खामोश से बस खड़े के खड़े रह जाते हैं और पता ही नही चलता कि पूरा हॉल खड़े होकर एक निर्देशक के कर्म को शाबासी दे रहा है। शिकायत कुछ लोगों को ये हो सकती है कि फिल्म अपने विषय के हिसाब से कैनवास का विस्तार नहीं पा सकी और फिल्म को तकनीकी रूप से और बेहतर होना चाहिए था। लेकिन, जिन हालात और जिस बजट में ये फिल्म बनी दिखती है, उसमें ऐसी कोई उम्मीद भी इस फिल्म से नहीं करनी चाहिए। बेहतर होना चाहिए था। लेकिन, जिन हालात और जिस बजट में ये फिल्म बनी दिखती है, उसमें ऐसी कोई उम्मीद भी इस फिल्म से नहीं करनी चाहिए।
द कश्मीर फाइल्स अनुपम खेर - द कश्मीर फाइल्स
फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को इसके कलाकारों की बेहतरीन अदाकारी के लिए भी देखा जाना चाहिए। अनुपम खेर अरसे बाद अपने पूरे रंग मे दिखे हैं। वह परदे पर जब भी आते हैं, दर्द का एक दरिया सा उफनाता है और दर्शकों को अपने साथ बहा ले जाता है। उनका अभिनय फिल्म में ऐसा है कि इसे देखने के बाद अगले साल का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार उनके नाम होना बनता ही है। दर्शन कुमार ने फिल्म के अतीत को वर्तमान से जोड़ने का शानदार काम किया है। उनके कैंपस वाले भाषण और इस दौरान उनकी भाव भंगिमाएं देखने लायक हैं। चिन्मय मांडलेकर का अभिनय फिल्म की एक और मजबूत कड़ी है। तकनीकी तौर पर फिल्म बहुत कमाल की भले न हो लेकिन उदय सिंह मोहिले ने अपने कैमरे के सहारे फिल्म का दर्द धीरे धीरे रिसते देने में कामयाबी पाई है। फिल्म की अवधि इसकी सबसे कमजोर कड़ी है। फिल्म की अवधि कम करके इसका असर और मारक किया जा सकता है। फिल्म का संगीत कश्मीर के लोक से प्रेरणा पाता है और हिंदी भाषी दर्शकों को इसे समझाने के लिए विवेक ने मेहनत भी काफी की है। मुख्यधारा की फिल्म के हिसाब से फिल्म का संगीत हालांकि कमजोर है। लेकिन, इस सबके बावजूद फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ कथानक के लिहाज से इस साल की एक दमदार फिल्म साबित होती है।