रूस और यूक्रेन के बीच जारी विवाद खत्म होता नजर नहीं आ रहा है. यूक्रेन की सीमा पर 1,25,000 रूसी सेना के जवान खड़े हैं. स्थिति इतनी गंभीर है कि नाटो (NATO) देशों और रूसी सेना के बीच कभी भी युद्ध हो सकता है. विवाद यह है कि यूक्रेन उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो का सदस्य देश बनना चाहता है और रूस इसका विरोध कर रहा है. नाटो अमेरिका और पश्चिमी देशों के बीच एक सैन्य गठबंधन है, इसलिए रूस नहीं चाहता कि उसका पड़ोसी देश नाटो का मित्र बने. इस पूरे विवाद ने एक नई युद्ध की संभावना को जन्म दिया है जिसमें एक से ज्यादा देश भाग ले सकते हैं. रूस ने यूक्रेन से लगी 450 किलोमीटर लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर अपने 1,25,000 सैनिकों को तैनात किया है, जवानों को यूक्रेन की पूर्वी और उत्तर-पूर्वी सीमा पर तैनात किया गया है. रूस ने काला सागर में अपने युद्धपोत भी तैनात किए हैं जो खतरनाक मिसाइलों से लैस हैं. 2014 में रूस ने यूक्रेन के एक महत्वपूर्ण बंदरगाह क्षेत्र क्रीमिया पर कब्जा कर लिया था और तब से संघर्ष कभी खत्म ही नहीं हुआ.
रूस-यूक्रेन संघर्ष ने दुनिया को दो गुटों में बांट दिया है. एक तरफ रूस है, जिसे चीन जैसे देशों का समर्थन प्राप्त है और दूसरी तरफ यूक्रेन है, जिसे अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य नाटो देशों से समर्थन मिल रहा है.रूस ने यूक्रेन को चारों तरफ से घेर कर यूक्रेन की सीमा पर ड्रोन भी तैनात किए हैं, जो किसी भी सैन्य अड्डे को तबाह कर सकते हैं.
रूस क्यों नहीं चाहता कि यूक्रेन नाटो देशों में शामिल हो?
नाटो सैन्य समूह में अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे 30 देश शामिल हैं. अब रूस के सामने चुनौती है कि उसके कुछ पड़ोसी देश पहले ही नाटो में शामिल हो चुके हैं. इनमें एस्टोनिया और लातविया जैसे देश हैं, जो पहले सोवियत संघ का हिस्सा थे. अब अगर यूक्रेन भी नाटो का हिस्सा बन गया तो रूस हर तरफ से अपने दुश्मन देशों से घिर जाएगा और अमेरिका जैसे देश उस पर हावी हो जाएंगे. अगर यूक्रेन नाटो का सदस्य बन जाता है और रूस भविष्य में उस पर हमला करता है तो समझौते के तहत इस समूह के सभी 30 देश इसे अपने खिलाफ हमला मानेंगे और यूक्रेन की सैन्य सहायता भी करेंगे.
रूसी क्रांति के नायक व्लादिमीर लेनिन ने एक बार कहा था कि 'यूक्रेन को खोना रूस के लिए एक शरीर से अपना सिर काट देने जैसा होगा.' यही कारण है कि रूस नाटो में यूक्रेन के प्रवेश का विरोध कर रहा है. यूक्रेन रूस की पश्चिमी सीमा पर है. जब 1939 से 1945 तक चले द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रूस पर हमला किया तो यूक्रेन एकमात्र ऐसा क्षेत्र था, जहां से रूस को अपनी सीमा की रक्षा की थी. अब अगर यूक्रेन नाटो देशों के साथ चला गया तो रूस की राजधानी मास्को, पश्चिम से सिर्फ 640 किलोमीटर दूर होगी. फिलहाल यह दूरी करीब 1600 किलोमीटर है.
यूक्रेन नाटो में क्यों शामिल होना चाहता है?
यूक्रेन के नाटो देश में शामिल होने की वजह 100 साल पुरानी है, जब देश का अलग अस्तित्व भी नहीं था. 1917 से पहले रूस और यूक्रेन रूसी साम्राज्य का हिस्सा थे. 1917 में रूसी क्रांति के बाद, यह साम्राज्य बिखर गया और यूक्रेन ने खुद को एक स्वतंत्र देश घोषित कर दिया. हालांकि यूक्रेन मुश्किल से तीन साल तक स्वतंत्र रहा और 1920 में यह सोवियत संघ में शामिल हो गया. यूक्रेन के लोग हमेशा से खुद को स्वतंत्र देश मानते रहे.

1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो यूक्रेन सहित 15 नए देशों का गठन हुआ. सही मायनों में यूक्रेन को साल 1991 में आजादी मिली. हालांकि, यूक्रेन शुरू से ही समझता है कि वह रूस से कभी भी अपने दम पर मुकाबला नहीं कर सकता और इसलिए वह एक ऐसे सैन्य संगठन में शामिल होना चाहता है जो उसकी आजादी को सुरक्षित रख सके. नाटो से बेहतर संगठन कोई और नहीं है जो यूक्रेन की सुरक्षा कर सके.
यूक्रेन के पास न तो रूस जैसी बड़ी सेना है और न ही आधुनिक हथियार. यूक्रेन में 1.1 मिलियन सैनिक हैं जबकि रूस के पास 2.9 मिलियन सैनिक हैं. यूक्रेन के पास 98 लड़ाकू विमान हैं, रूस के पास करीब 1500 लड़ाकू विमान हैं. रूस के पास यूक्रेन की तुलना में अधिक हमलावर हेलीकॉप्टर, टैंक और बख्तरबंद वाहन भी हैं.
विवाद का असली विलेन है अमेरिका!
रूस और यूक्रेन के विवाद में अमेरिका की अहम भूमिका है. अमेरिका ने अपने 3000 सैनिकों को यूक्रेन की मदद के लिए भेजा है और उनकी तरफ से यह आश्वासन दिया गया है कि वे यूक्रेन की मदद के लिए हर संभव प्रयास करेंगे. सच्चाई यह है कि मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, यूक्रेन का इस्तेमाल सिर्फ अपनी छवि मजबूत करने के लिए कर रहे हैं. पिछले साल अमेरिका को अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी थी. इसके अलावा ईरान में अमेरिका कुछ हासिल नहीं कर पाया और तमाम प्रतिबंधों के बावजूद उत्तर कोरिया लगातार मिसाइल परीक्षण भी कर रहा है. इन घटनाओं ने अमेरिका की सुपर पॉवर इमेज को नुकसान पहुंचाया है. यही वजह है कि जो बाइडेन यूक्रेन-रूस विवाद के साथ इसकी भरपाई करना चाहते हैं.
अमेरिका के अलावा ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों ने भी यूक्रेन का समर्थन किया है. इन देशों का समर्थन कब तक चलेगा यह एक बड़ा सवाल है क्योंकि यूरोपीय देश अपनी गैस की एक तिहाई जरूरत के लिए रूस पर निर्भर हैं. अब अगर रूस इस गैस की आपूर्ति बंद कर देता है तो इन देशों में भयानक पॉवर क्राइसिस होगा.

किसके साथ खड़ा है भारत?
रूस-यूक्रेन के विवाद में भारत के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है. भारत के लिए रूस और अमेरिका दोनों महत्वपूर्ण हैं. भारत अपने 55 फीसदी हथियार रूस से खरीदता है जबकि अमेरिका के साथ भारत के संबंध पिछले 10 वर्षों में काफी मजबूत हुए हैं. भारत ने सबसे पहले फरवरी 1993 में एशिया में अपना दूतावास यूक्रेन में खोला वह था. तब से भारत और यूक्रेन के बीच व्यापारिक, रणनीतिक और राजनयिक संबंध मजबूत हुए हैं. यानी भारत इनमें से किसी भी देश को परेशान करने का जोखिम नहीं उठा सकता.
रूस ने अब तक भारत-चीन सीमा विवाद पर तटस्थ रुख अपनाया है. अगर भारत यूक्रेन का समर्थन करता है तो वह कूटनीतिक रूप से रूस को चीन के पक्ष में ले जाएगा. शायद यही कारण है कि हाल ही में जब अमेरिका सहित 10 देश संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन पर एक प्रस्ताव लेकर आए भारत ने किसी के पक्ष में मतदान नहीं किया. भारत के लिए चिंता की बात यह भी है कि इस समय यूक्रेन में करीब 20,000 भारतीय फंसे हुए हैं जिनमें से 18 हजार मेडिकल के छात्र हैं.
यूक्रेन और रूस के रिश्ते को समझना बहुत मुश्किल है. यूक्रेन के लोग स्वतंत्र रहना चाहते हैं, लेकिन पूर्वी यूक्रेन के लोगों की मांग है कि यूक्रेन को रूस के प्रति वफादार रहना चाहिए. यूक्रेन की राजनीति में नेता दो गुटों में बंटे हुए हैं. एक दल खुले तौर पर रूस का समर्थन करता है और दूसरा दल पश्चिमी देशों का समर्थन करता है. यही वजह है कि आज यूक्रेन दुनिया की बड़ी ताकतों के बीच फंसा हुआ है.
रूस यूक्रेन युद्ध - एक विश्लेषण
1991 का खाड़ी युद्ध ऐसा पहला था जिसका सीधा प्रसारण टेलीविजन पर दुनिया भर ने देखा। तब तक भारत जैसे गरीब देशों के ग्रामीण इलाकों में भी ब्लैक एंड व्हाइट ही सही, टीवी क्रांति आ चुकी थी। टारगेट का विध्वंस करते मिसाइलों को लाइव देखना भयभीत कर देने वाला अनुभव था और इस बात का अहसास भी कि आधुनिक युद्ध पूरी मानवता के लिये कितने खतरनाक हो सकते हैं। नाटो और इराक के बीच चल रहे उस युद्ध के औचित्य को लेकर कई सवाल खड़े हो रहे थे लेकिन सूचना तंत्र पर अमेरिकी -यूरोपीय वर्चस्व ने जो नैरेटिव गढ़ा, दुनिया ने वही माना। सद्दाम हुसैन को विलेन के रूप में प्रचारित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई। दुनिया को बताया गया कि इराक के पास ऐसे रासायनिक अस्त्रों का गुप्त जखीरा है जो सामरिक मूल्यों और मानवता के विरुद्ध है। पूरी दुनिया ने खाड़ी युद्ध के कंपन को महसूस किया और इराक तो तहस-नहस हो गया।
बाद के घटनाक्रमों और जांच समितियों ने साबित किया कि रासायनिक अस्त्रों आदि की तमाम बातें निराधार थीं और मध्य-पूर्व की राजनीति में अपनी दखल मजबूत करने के लिये पश्चिमी प्रोपेगेंडा का हिस्सा थी। सद्दाम हुसैन, जो अमेरिकी मंसूबों के सामने चुनौती थे, को खत्म करने के लिये युद्ध थोपना जरूरी था और युद्ध के औचित्य को साबित करने के लिये प्रोपेगेंडा रचना जरूरी था।
पोस्ट-ट्रूथ के दौर में सूचना-तंत्र पर आधिपत्य नैरेटिव गढ़ने की ऐसी ताकत देता है जो भ्रम का नया संसार रच देता है। अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी ताकतों ने खाड़ी युद्ध के तीन दशकों के बाद इस आधिपत्य को और मजबूत किया है।
इस दौरान हुई आईटी क्रांति ने तो सूचना-परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया है। आईटी क्रांति और उसके शिखर प्रतीक गूगल, यूट्यूब, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि की जड़ें अमेरिका में हैं और वह इनके माध्यम से किसी भी सूचना-युद्ध को अपने हित में नियंत्रित करने में अधिक समर्थ है।
अभी चल रहे रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान गूगल, यूट्यूब आदि ने रूसी समाचार माध्यमों को प्रतिबंधित कर अमेरिका को अपने नैरेटिव सेट करने के लिये खुला मैदान दे दिया है।
यूक्रेन की राजधानी में एक भारतीय न्यूज चैनल के लिये युद्ध कवर कर रहे रिपोर्टर राजेश पवार आज बोल रहे थे, "... ये पूरे का पूरा जो ब्लैक आउट है रशियन प्वाइंट ऑफ व्यू को जानने का, सारा नैरेटिव अभी अमेरिका बिल्ड कर रहा है, वह इस लड़ाई को, इन्फॉर्मेशन वार फेयर की लड़ाई को अपने हिंसाब से चला रहा है और रूस इसमें पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया है, इन्फॉर्मेशन वार फेयर में, तमाम बड़ी आईटी कंपनीज को अमेरिका और उसके अलाइज कंट्रोल कर रहे हैं तो रूसी नैरेटिव का पता लगाना या रूस के बारे में कुछ खबर पा पाना किसी के लिये भी अब लगभग इंपॉसिबल हो गया है और जो अमेरिका चाहेगा दुनिया भी वही जानेगी और उसी के बारे में बात करेगी...।"
यह बेहद खतरनाक स्थिति है कि एक ऐसे युद्ध के दौरान, जो दिन प्रतिदिन विध्वंसक होता जा रहा है, जिसके कारण विश्व मानवता की सांसें अटकी हुई हैं, उसके संदर्भ में दुनिया को एकायामी सूचनाएं मिलती रहें और संकट के दूसरे आयाम के प्रति आम लोगों की समझ साजिशन विकृत कर दी जाए।
यूक्रेन संकट में रूस और पुतिन को विवेकहीन आक्रांता के रूप में प्रचारित करने में अमेरिका सफल रहा है और विमर्शों की जो दिशा है उसमें विश्व मानस में यह स्थापित हो रहा है कि किसी तानाशाह की सनक के कारण दुनिया आज परमाणु युद्ध के मुहाने पर आ खड़ी हुई है।
जबकि, यूक्रेन को मोहरा बना कर रूस को घेरने और दबाव में लाने के अमेरिकी-यूरोपीय षड्यंत्रों का सिलसिला लंबे समय से चलता रहा है और आज अगर संकट इतना गहरा हो गया है तो इसमें पुतिन की महत्वाकांक्षाओं के साथ ही इन पश्चिमी षड्यंत्रों की भी बड़ी भूमिका है।
2014 में यूक्रेन की रूस समर्थक सत्ता को जमींदोज करने में और रूस विरोधी सत्ता को स्थापित करने में अमेरिका-यूरोप ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कितनी ऊर्जा लगाई, यह कोई छिपी बात नहीं है। यूक्रेन की आर्थिक नीतियों को अपने हितों के अनुरूप मोड़ने की कोशिशें, उसकी सैन्य नीतियों को प्रभावित कर रूस पर दबाव बनाने के मंसूबे कोई नई बात नहीं हैं।
रूस समर्थक यूक्रेनी सत्ता को अस्थिर करने के लिये पश्चिमी शक्तियों ने विद्रोहियों को धन और हथियार मुहैया करवाने के साथ ही हर सम्भव कूटनीतिक मदद भी दी।
यूरोप के देश यूक्रेन में अपनी आर्थिक गतिविधियां बढाना चाहते थे, अमेरिका अपनी कम्पनियों के लिये वहां अवसर तलाश रहा था और सबसे खतरनाक यह कि रूस की बढ़ती सैन्य शक्ति को काबू में रखने के लिये अमेरिका यूक्रेन की जमीन का अपने मन मुताबिक इस्तेमाल करना चाहता था। सवाल उठता है कि जिस 'वारसा संधि' से जुड़े देशों के जवाब में नाटो संगठन अस्तित्व में था, उस सन्धि के बिखरने के बाद भी नाटो को बनाए रखने और उसके विस्तार के पीछे ताकतवर देशों की कौन सी मंशा रही है।
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद नाटो सुरक्षा के अनुबंध से जुड़ा संगठन न रह कर अमेरिकी आर्थिक साम्राज्य को विस्तारित करने का उपकरण बन गया है। कोई आश्चर्य की बात नहीं कि जब यूक्रेन में पश्चिम समर्थक सत्ता अस्तित्व में आई तो पश्चिमी कम्पनियों के लिये वहां के द्वार खोल दिये गए, उनके हितों के अनुरूप नीतियों को तोड़ा-मरोड़ा जाने लगा और आर्थिक पायदान पर नीचे रहे निवासियों के लिये सब्सिडी आधारित योजनाओं में कटौती की जाने लगी। इन अर्थों में पश्चिम और रूस के बीच द्वंद्व में पश्चिमी शक्तियों ने अपनी बढ़त कायम कर ली। जाहिर है, रूस को भी अपने कदम बढ़ाने ही थे।
आज यूक्रेन और रूस की टकराहट में अमेरिका जिस नैरेटिव के तहत दुनिया को समझा रहा है कि तानाशाह पुतिन के अविवेकी कदम से ऐसे खतरनाक हालात बने हैं, उस संकट को उत्पन्न करने में खुद अमेरिका की साजिशों की कितनी बड़ी भूमिका है, वर्तमान यूक्रेन विमर्श में इसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। नए दौर में नाटो आर्थिक साम्राज्य के विस्तार के लिये अश्वमेध के घोड़े के पीछे चलने वाले सैन्य समूह की भूमिका में है। तब के खाड़ी संकट में भी नाटो की यही भूमिका थी, आज यूक्रेन, फिनलैंड आदि देशों में इसके संभावित कदमों की पृष्ठभूमि में भी इसकी यही उपयोगिता है।
यहां मंदी से जूझते अमेरिकी-यूरोपीय अर्थ तंत्र को उबारने की कोशिशों में हथियार उद्योग की महत्वपूर्ण भूमिका को भी समझना होगा। युद्धों के बिना संहारक हथियार बेमानी हैं। विश्व मानवता के समक्ष कोई तानाशाह हमेशा एक चुनौती ही होता है, लेकिन उससे भी बड़ा अभिशाप है बड़ी हथियार कंपनियों और उनके नियंता देशों का अंतहीन लालच। ये बातें शांति की करते हैं, साजिशें अशांति की रचते हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि देशों की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं की चमक के पीछे उनके हथियार उद्योग के अकूत मुनाफे की सबसे बड़ी भूमिका है और उन अट्टालिकाओं की नींव में तीसरी दुनिया के गरीब और समस्याग्रस्त देशों के कुपोषण ग्रस्त बच्चों की सिसकियां, अनिवार्य जरूरतों से महरूम बड़ी आबादी की आहें दफन हैं।
विमर्शों ओर विश्लेषकों के बीच आज दो सवालों पर गहन मंथन हो रहे हैं। पहला कि क्या यूक्रेन संकट तीसरे विश्व युद्ध की शुरुआत है, और दूसरा कि क्या दुनिया सर्वनाशी परमाणु युद्ध के मुहाने पर खड़ी है। विमर्शों में इन सवालों का आना ही दुनिया को भयाक्रांत करने के लिये काफी है। लेकिन, इन्हीं से जुड़ा इससे भी जटिल सवाल यह है कि इसके पीछे क्या तानाशाह पुतिन की आक्रामक महत्वाकांक्षा और हठधर्मिता ही जिम्मेदार है या अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी शक्तियों के अंतहीन लालच और इस फेर में दुनिया को उलट-पुलट कर देने वाली परत दर परत की उनकी अंतहीन साजिशों की भी कोई भूमिका है। रूस को पुराने गौरवशाली सोवियत संघ के शक्तिशाली उत्तराधिकारी के रूप में देखने की आकांक्षा पालने वाले ब्लादिमीर पुतिन के लिये अपने उद्देश्यों के बरक्स विश्व मानवता की रक्षा कोई बहुत अधिक संवेदनात्मक महत्व की चीज नहीं है। वे एकाधिक बार अपने इस वक्तव्य में इसे दुहरा भी चुके हैं, "...अगर दुनिया में रूस शामिल नहीं है तो दुनिया का अस्तित्व क्यों बना रहे...।" अगर पुतिन सब कुछ मटियामेट करने पर आमादा हो सकते हैं तो संभावित विध्वंस के लिये लालच से प्रेरित, साजिशों में लिप्त, बाजारवाद की प्रवक्ता अन्य महाशक्तियों की भूमिकाओं का भी विश्लेषण होना ही चाहिए।