देश एक अंतरिक्ष शक्ति के बतौर तो पूरी तरह स्वावलंबी है लेकिन अपनी सैन्य ताकत के मामले में पूरी तरह आयातित हथियारों पर निर्भर है. भारत की सेना दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी सेना है जहां का रक्षा बजट इस साल 2.74 लाख करोड़ रु. का है. भारत दुनिया में रक्षा क्षेत्र पर खर्च करने वाले देशों में छठवें स्थान पर है. इसके बावजूद यहां करीब 60 फीसदी सैन्य उपकरण आयातित होते हैं. भारत पर अक्सर ''दुनिया के सबसे बड़े हथियार आयातक" का तमगा लगाया जाता है और 2012 से 2016 के बीच देश ने कुल वैश्विक शस्त्र आयात का अकेले 13 फीसदी अपने नाम किया है. लोकसभा में सरकार के पेश किए आंकड़े बताते हैं कि 2013 से 2016 के बीच 82,496 करोड़ रु. के शस्त्र आयात किए गए. नई सरकार भले ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के लिए स्थायी सदस्यता का प्रयास कर रही हो, लेकिन उसे यह विडंबनापूर्ण तथ्य नहीं भूलना चाहिए कि परिषद के पांच स्थायी सदस्यों में चार देशों से वह अपनी सुरक्षा की विशुद्ध खरीदारी करती है.
इस आयात की वजह क्षमता और सामर्थ्य के बीच का फर्क है. भारत का रक्षा उत्पादन तंत्र-शस्त्र कारखानों, शिपयार्डों और प्रयोगशालाओं का एक विशाल तंत्र, जिसमें दो लाख कर्मचारी रोजगाररत हैं, सेना की जरूरतें पूरी कर पाने में अक्षम है. भारत में रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रम (डीपीएसयू) इस साल 57,000 करोड़ रु. के अस्त्र-शस्त्र की आपूर्ति करेंगे लेकिन यह सैन्य बलों की जरूरतों को पूरा कर पाने में अपर्याप्त होगा. इस अंतर को पूरा करने के लिए ऑफ द-शेल्फ आयात किया जाता है जिससे भारतीय उद्योगों को प्रौद्योगिकीय लाभ में कोई मदद नहीं मिलती है. यह एक बड़ी वजह थी कि मोदी सरकार ने अपनी आर्थिक योजना में चिह्नित किए 25 क्षेत्रों में रक्षा उत्पादन क्षेत्र को भी शामिल किया, ताकि जीडीपी में उत्पादन की हिस्सेदारी को बढ़ाकर 25 फीसदी तक लाया जा सके (मौजूदा 16 फीसदी से) और 10 करोड़ अतिरिक्त रोजगारों का सृजन हो सके.
ऐसी आयात निर्भरता को पलटने के सर्वाधिक समग्र प्रयासों में ''मेक इन इंडिया" को गिनाया जा सकता है. पिछले तीन साल में सरकार ने इस मोर्चे पर सिलसिलेवार कई उपायों को लागू किया है, जिनमें रक्षा क्षेत्र को 49 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोले जाने (और कुछ मामलों में इससे ज्यादा) से लेकर देसी उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए इंडीजीनियसली डिजाइंड, डेवेलप्ड ऐंड मैन्युफैक्चर्ड (आइडीडीएम) श्रेणी का निर्माण शामिल है.
सरकार की ''मेक इन इंडिया" नीति की राह में एक और बड़ा रोड़ा निजी क्षेत्र को दिए गए ऑर्डरों का अभाव है. कम-से-कम ऐसे 10 प्रस्ताव जो अरबों डॉलर के हैं और जिनका उद्देश्य सेनां को आधुनिक इनफैन्ट्री कॉम्बैट वाहनों, संवार प्रणाली, होवित्जर, हेलिकॉप्टर और लड़ाकू जेट से युक्त करना है, अब भी पाइपलाइन में हैं.
सशस्त्र बलों की जरूरतें बहुत ज्यादा हैं. सेना के तीनों अंगों के मुख्यालय इंटिग्रेटेड डिफेंस स्टाफ के अप्रैल 2013 में किए गए एक अध्ययन टेक्नोलॉजी, पर्सपेक्टिव ऐंड कैपेबिलिटी रोडमैप्य में उच्च प्रौद्योगिकी वाले सैन्य उपकरणों की भारत को जरूरत का मूल्यांकन किया गया था, जिनमें ड्रोन, प्रिसीशन वीपन, राडार, बंदूकें, सेंसर और विमान शामिल थे. अगले 15 साल के दौरान यह जरूरत करीब 100 अरब डॉलर की बताई गई है. एयरो इंडिया में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने कहा कि सैन्यबलों को करीब 400 लड़ाकू जेट और 800 से 1,000 हेलिकॉप्टरों की जरूरत अगले एक दशक में पड़ेगी. उन्होंने कहा, ''अगले 10 साल में हमें 5,000 हेलिकॉप्टर इंजनों की जरूरत होगी और हमें 400 एलसीए इंजन (हल्के लड़ाकू विमान) भी चाहिए होंगे.... ये सभी मिलकर भारी संभावनाओं को खोलते हैं." मामला यह है कि जब तक इनके ऑर्डर नहीं दिए जाते, तब तक तो ये संख्याएं हवा में ही लटकी रहेंगी.
पर्रीकर के मुताबिक उनका मंत्रालय देसीकरण के लक्ष्य पर काम कर रहा है. उन्होंने कहा, ''डॉ. कलाम की रिपोर्ट के मुताबिक हमारा लक्ष्य 70 फीसदी देसीकरण है. इसमें चार से पांच साल लगेंगे. इस सरकार के कार्यकाल के अंत तक हम 60 फीसदी के आंकड़े को छू लेंगे." इस साल के रक्षा बजट में हालांकि पांच फीसदी का मामूली इजाफा हुआ है-जो महंगाई से निबटने में ही बमुश्किल काफी होगा. यह जीडीपी का महज 1.62 फीसदी था. सैन्य विश्लेषक ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल (अवकाश प्राप्त) चेतावनी देते हैं, ''यह 1962 की चीन की जंग के बाद सबसे कम है जब यह जीडीपी का 1.59 फीसदी था और यह भारतीय फौज के आधुनिकीकरण की चुनौतियों को पूरा कर पाने में बेहद अपर्याप्त है."
रक्षा मंत्रालय में पूर्व वित्तीय सलाहकार अमित कौशिश कहते हैं, ''इस बात पर कोई स्पष्टता ही नहीं है कि यह सरकार जो कर रही है, वह पिछली सरकार से किस मामले में अलग है." वे कहते हैं, ''रक्षा क्षेत्र में मेक इन इंडिया की तस्वीर साफ नहीं है. बस पुरानी नीतियों को सतही बदलावों के साथ झाड़-पोंछ दिया गया है." स्थिर बजट और लालफीताशाही में फंसे हुए ऑर्डरों के चलते सरकार का मेक इन इंडिया वाला सपना रक्षा क्षेत्र में जुमला बनकर रह जाने के खतरे से दो-चार है.
पिछले एक साल में भारत के राजनयिकों और सैन्य अफसरों ने चीन-पाकिस्तान में बने 24 जेएफ-17 ''थंडर" जेट की श्रीलंका को प्रस्तावित बिक्री में अड़ंगा लगाने का काम किया है. इस सौदे पर भारत की घबराहट और यह तथ्य कि उसने अपने देसी हल्के लड़ाकू विमान तेजस को चीन-पाकिस्तान में बने लड़ाकू जेट के विकल्प के तौर पर सामने क्यों रखा, उसके मूल में दरअसल चीन का उन दक्षिण एशियाई इलाकों में बढ़ता प्रभाव है जहां कभी परंपरागत रूप से भारत का सिक्का चलता था. चीन ने 2014 में दो पुरानी डीजल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बियां बांग्लादेश को बेची थीं और इस तरह भारत के पूर्वी तटों पर अपने कदम मजबूत कर लिए थे. भारत के पास उसे देने को कुछ नहीं था क्योंकि बीते 17 वर्षों में भारतीय नौसेना ने एक भी नई पनडुब्बी नहीं खरीदी है.
ऐसी कमियां एक ऐसे देश में झूठी जान पड़ सकती हैं जो दुनिया के सबसे बड़े सैन्य-औद्योगिक प्रतिष्ठानों में एक होने का दावा करता हो—जिसमें 41 आयुध कारखानों, रक्षा क्षेत्र के 9 सार्वजनिक उपक्रम और 52 अनुसंधान प्रयोगशालाएं हैं-और असॉल्ट राइफल से लेकर पनडुब्बी तक सब कुछ बनाता हो. यही वह विशाल औद्योगिक आधार है जो हथियारों की बिक्री में होने वाली खतरनाक सौदेबाजी पर मुखौटे का काम करता है. ये उद्योग जो उपकरण उत्पादित करते हैं, उनमें से अधिकतर विदेशी फर्मों के लाइसेंस के तहत होते हैं. आयुध कारखाना बोर्ड (ओएफबी) की 2014 की एक आंतरिक रिपोर्ट कहती है कि उसके 13,500 करोड़ रु. के कारोबार का करीब 90 फीसदी हिस्सा ऐसी प्रौद्योगिकी से आता है जो संगठन के बाहर विकसित होती है.
करीब 250 एसयू-30एमकेआइ जेट, नौ किलो क्लास डीजल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बियां और 2000 से ज्यादा टी-72/टी-90 मुख्य युद्धक टैंक क्रमशः भारतीय वायु सेना, नौसेना और थल सेना की रीढ़ हैं. रूस के ओरिजिनल इक्विपमेंट मैन्यूफैक्चरर्स (ओईएम) ने नासिक के पास ओजार में स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के कारखाने को एसयू-30एमकेआइ और अवाडी में हेवी वेहिकल्स फैक्ट्री को टी-90 टैंक असेंबल करने का नुस्खा दिया हुआ है.
वे इसके तकनीकी ज्ञान को साझा नहीं कर सकते यानी उत्पाद की डिजाइन या फिर किसी विशिष्ट डिजाइन के सोर्स कोड को नहीं बता सकते (प्लेटफॉर्म के मूल्य के 60 से 80 फीसदी के बीच भी), इसलिए भारत इन प्लेटफॉर्मों को ओईएम से मशविरा किए बगैर अपग्रेड तक नहीं कर सकता. इस तरह भारत के उद्योग उत्पाद के जीवनकाल तक विक्रेता के साथ स्थायी रूप से बंधे रहते हैं.
एक निजी फर्म के सीईओ बताते हैं, ''एक प्लेटफॉर्म की लाइफ साइकिल (जीवनचक्र) लागत गुणात्मक मूल्य देती है. किसी भी प्लेटफॉर्म के लिए लाइफ साइकिल लागत (उत्पादों की सर्विसिंग और नवीकरण) अधिग्रहण की लागत के चार से सात गुना के बीच होती है. इससे उत्पाद के समूचे जीवनकाल में उत्पादक को भारी मुनाफा होता है." यही निर्भरता लड़ाकू जेट, युद्धक जहाजों या युद्धक टैंकों के मामले में कायम रहती है और यही वजह है कि वैश्विक ताकतों के लिए उनकी विदेश नीति का एक अभिन्न हिस्सा हथियारों की बिक्री बन चुका है क्योंकि इससे उनके रसूख और शक्ति में इजाफा होता है.
अनुसंधान और विकास में कमजोर निवेश इस निर्भरता को स्थायी बना देते हैं—मसलन, ओएफबी अपने बजट का केवल 0.7 फीसदी अनुसंधान और विकास में निवेश करते हैं जबकि जरूरत कम से कम तीन फीसदी है. आइडीएसए द्वारा 2016 में किए गए एक अध्ययन ''इंडियन डिफेंस इंडस्ट्री—एन एजेंडा फॉर मेकिंग इन इंडिया" कहता है कि नौ डीपीएसयू में से चार के पास एक भी पेटेंट या कॉपीराइट नहीं है. इसकी तुलना में हवाई जहाज बनाने वाली कंपनी बोइंग ने अकेले 787 ड्रीमलाइनर के विकास के दौरान 1,000 से ज्यादा पेटेंट पर दावा ठोका था.
मामला अकेले प्लेटफॉर्म का नहीं है. घरेलू प्लेटफॉर्म के निर्माण के लिए भी डीपीएसयू आयातित घटकों पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं. पिछले पांच वर्षों के दौरान सरकारी कंपनी एचएएल ने 90 फीसदी विमान घटक, हिस्से और कच्चे माल का आयात किया.
महालेखा नियंत्रक और परीक्षक (कैग) की 2014 की एक रिपोर्ट कहती है कि देसीकरण के मामले में ओएफबी का रिकॉर्ड बेहद खराब रहा है. इसके दो उदाहरण दिए गए हैः एक यह कि ओएफबी टी-90 टैंकों की मेन असेंबली के लिए 78 में सिर्फ 59 कोड का प्रबंध कर पाए और दूसरे, स्वीडन से आयातित 84 एमएम के रॉकेट लॉन्चर में 47 फीसदी हिस्से का ही देसीकरण हासिल कर पाए.
भारत के आठ डीपीएसयू की औसत उत्पादकता करीब 67,000 डॉलर है जो वैश्विक औसत का पांचवां हिस्सा है. दुनिया में शस्त्र उत्पादन करने वाली शीर्ष पांच कंपनियों की श्रम उत्पादकता 3,70,000 डॉलर है. सरकारी क्षेत्र के शस्त्र कारखानों में होने वाली देरी का आलम यह है कि सशस्त्र बलों को अक्सर आपात स्थिति में आयात का सहारा लेना पड़ा है. अक्तूबर में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में सर्जिकल हमले के कुछ ही दिन बाद भारत के रक्षा मंत्रालय ने रूस और इज्राएल से बड़े पैमाने पर हथियारों के ऑफ-द-शेल्फ आयात की प्रक्रिया शुरू कर दी थी, जिनकी लागत 3 अरब डॉलर के करीब थी. वजह यह थी कि सेना 2013 में अगले पांच साल यानी 2019 तक के लिए लगाए गए 40,771 करोड़ रु. के हथियारों के अनुमान की जरूरत को पूरा कर पाने में ओएफबी नाकाम रहा था, जिसके चलते उसे आयात करना जरूरी हो गया.
भारत और विदेशी कंपनियों के बीच संयुक्त उपक्रमों की राह बना रही रणनीतिक साझेदारियों के सिलसिले में सबसे कमजोर कड़ी रक्षा मंत्रालय में चलने वाली निर्णय प्रक्रिया है, जहां से अनुबंध दिए जाते हैं. निजी क्षेत्र के एक सीईओ बताते हैं कि कैसे निजी क्षेत्र के प्रस्तावों को मंजूरी मिलने में नौ महीने से एक साल तक का वक्त लग जाता है क्योंकि रक्षा मंत्रालय उन्हंत संदेह की निगाह से देखता है.
गेट वे ऑफ इंडिया जियो-इकोनॉमिक डायलॉग के हालिया आयोजन में निजी क्षेत्र, खासकर विदेशी रक्षा कंपनियों के नुमाइंदों ने भारत के रक्षा क्षेत्र में खरीद से जुड़ी दिक्कतों और समुद्रपार से जुड़ी समस्याओं और चुनौतियों की ओर इशारा किया था. मुंबई स्थित संस्था गेट वे हाउस में नेशनल सिक्योरिटी स्टडीज के फेलो समीर पाटील कहते हैं, ''मेक इन इंडिया के माध्यम से भारत का अपना रक्षा औद्योगिक आधार तैयर करने के लिए इन मुद्दों को संबोधित करना निर्णायक होगा." देसी घटकों में इजाफे के लिए निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी दिमाग खपाने वाली नहीं है. हो सकता है कि चीन से होड़ में सरकार के लिए यह तुरुप का पत्ता साबित हो.
इसरो की कामयाबी की अहम वजहों में रॉकेट निर्माण में निजी क्षेत्र को शामिल करना रहा है. उसने अपने वेंडरों का एक व्यापक आधार तैयार किया है जो उसके अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए अहम घटकों की आपूर्ति करते हैं. इस मामले में इसरो का ट्रैक रिकॉर्ड उसके समकक्ष संगठन रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के लिए निर्देशात्मक भूमिका रखता है. राज्यसभा के सांसद और रक्षा पर संसद की स्थायी समिति के सदस्य राजीव चंद्रशेखर कहते हैं कि इसके साथ ही डिजाइन, इंटिग्रेशन और उत्पादन में निजी क्षेत्र की सहभागिता सुनिश्चित करने का मॉडल तैयार करने संबंधी सरकार के निर्णय ने डीआरडीओ और सरकारी क्षेत्र के उद्यमों को सक्षम और आक्रामक होने को मजबूर किया है. वे कहते हैं, ''यही असली उद्देश्य भी है-क्योंकि छोटी से मध्यम अवधि में एचएएल, बीईएल, बीडीआइ जैसी कंपनियां और एमडीआइ जैसे शिपयार्ड हमारी सैन्य तैयारी में वेंडर की भूमिका निभाते रहेंगे." रक्षा मंत्रालय की रक्षा खरीद नीति के तहत जिस आइडीडीएम श्रेणी को प्रोत्साहन की परिकल्पना है, वह भारत में दुर्लभ श्रेणी है.
एलसीए और ध्रुव एडवांस्ड लाइट हेलिकॉप्टर दोनों में ही आयातित इंजनों का प्रयोग होता है. हल्के शस्त्रयुक्त गश्ती जहाजों के अलावा भारत के पास केवल दो हथियार प्रणालियों की बौद्धिक संपदा मौजूद है-पिनाका मल्टिपल रॉकेट प्रणाली और जमीन से हवा में मार करने वाली आकाश मिसाइल प्रणाली, जो राजेंद्र राडार प्रणाली से निर्देशित है. इन दोनों के निर्यात का प्रस्ताव विएतनाम को दिया गया है. इन दोनों शस्त्र प्रणालियों को निजी-सरकारी सहभागिता के माध्यम से विकसित किया गया था-पिनाका रॉकेट में एलऐंडटी और टाटा पावर एसईडी का संयुक्त उपक्रम था जबकि आकाश को भारत इलेक्ट्रिकल्स और टाटा पावर ने मिलकर बनाया. निजी और सरकारी क्षेत्र की सहभागिता का भारत में जो सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है, वही भारत में सबसे गोपनीय भी है.
तीन अरिहन्त क्लास परमाणु शक्ति संपन्न बैलिस्टिक मिसाइल पनडुब्बियों (एसएसबीएन) का विकास भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, भारतीय नौसेना और कुछ निजी कंपनियों का एक संयुक्त उपक्रम विशाखापट्टनम में कर रहा है. इस श्रेणी के अग्रगामी जहाज आइएनएस अरिहन्त को पिछले ही साल नौसेना में शामिल किया गया है. देसी एसएसबीएन में 70 फीसदी के करीब देसी घटकों का इस्तेमाल किया गया है. उसके उलट काफी छोटी स्कॉर्पीन डीजल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बी में 30 फीसदी से कम देसी घटक हैं, जिनमें छह का उत्पादन मझगांव डक पर फ्रांस के लाइसेंस पर किया गया है.
डीआरडीओ की एडवांस्ड टोड आर्टिलरी गन प्रणाली का विकास टाटा-भारत फोर्ज के संयुक्त प्रयास से हो रहा है. अगले पांच साल में जब यह सेना में शामिल किए जाने के लिए तैयार हो जाएगी, तब देश के पास 155 एमएम का एक विश्वस्तरीय टोड होवित्जर निर्यात के लिए उपलब्ध होगा. डीआरडीओ का ''नेत्र" एईडब्लूऐंडसीएस, जिसे एयरो इंडिया में भारतीय वायु सेना को सौंपा गया है, वह पाकिस्तान को स्वीडन द्वारा बेचे गए चार स्वीडिश एरिक्सन एरीआइ एईडब्लू राडारों की 24.1 करोड़ डॉलर लागत के आधे से भी कम खर्च में तैयार किया गया है और उसमें निर्यात की जबरदस्त संभावनाएं मौजूद हैं.
रक्षा एक ऐसा उद्योग है जिसमें खरीदार और विक्रेता का दोनों का एकाधिकार एक साथ है—इसमें सरकार ही सबसे बड़ी हथियार निर्माता है और अकेली खरीदार भी है. सरकार ने 2001 से ही इस उद्योग में निजी खिलाडिय़ों को लाकर अपने एकाधिकार को कमजोर करने की कोशिश की है. पर जब ऑर्डर ही नहीं हैं तो बराबरी के मैदान की उसकी प्रतिबद्धता औंधे मुंह गिर पड़ती है.
अब तकरीबन एक दशक से रक्षा मंत्रालय ने ढेरों सैन्य ऑर्डरों को लेकर बहस छेड़ी है जो मशीनों को ताकतवर बनाएगी (देखें ग्राफिकः बीच राह में अटके). हरेक ऑर्डर का कई गुना बढ़ता असर देश के औद्योगिक वातावरण पर जबरदस्त होगा. इससे इस क्षेत्र में हजारों नौकरियों का सृजन होगा, खासकर सूक्ष्म लघु और मध्यम उद्योगों में, जो हिंदुस्तान की 80 फीसदी निजी रक्षा क्षमताओं को पूरा करते हैं. निजी क्षेत्र के एक अफसर का अनुमान है कि एफआइसीवी, युद्धभूमि प्रबंधन प्रणाली और रणनीतिक संचार प्रणाली की तीन ''निर्माण" परियोजनाएं भारतीय अर्थव्यवस्था में 1 जीडीपी अंक का इजाफा करेंगी और वाकई सरकार के मेक इन इंडिया के सपने को हकीकत में बदल देंगी.
निजी क्षेत्र ने हाल ही में कुछ कामयाबियां हासिल की हैं. पिछले दो साल में निजी क्षेत्र की कंपनियों अशोक लीलैंड और टाटा मोटर्स ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बीईएमएल के विवादित टाट्रा वाहनों के एकाधिकार को तकरीबन खत्म कर दिया है. निजी क्षेत्र की इन दोनों कंपनियों ने 1,694 एचएमवी के लिए 1,284 करोड़ रु. के ठेके हासिल किए हैं जो टोइंग फील्ड आर्टिलरी तोपों और मोबाइल रॉकेट लॉन्चरों के लिए हैं. लेकिन ऐसे बड़े ऑडरों के बगैर निजी कंपनियों को बड़ी आसानी से रक्षा उद्योग से बाहर किया जा सकता है.
ऑर्डर कई वजहों से रोक लिए जाते हैं. हाल ही में देश के भीतर ही 56 मध्यम परिवहन विमान बनाने का एक ऑर्डर, जो निजी क्षेत्र में पहला विमान निर्माण उद्यम है, एक साल से अटका पड़ा है. इसकी वजह महज यह है कि रक्षा मंत्रालय सिर्फ 56 विमान चाहता है, जबकि परियोजना के लिए बोली लगाने वाली अकेली कंपनी टाटा-एयरबस कंसोर्शियम कम से कम 100 विमानों का ऑर्डर चाहती है ताकि परियोजना कारगर हो सके. सैनिकों को आधुनिक राइफलें, सुरंग-रोधी जूते और पहनने लायक कंप्यूटरों से लैस करके भारतीय पैदल सेना को आधुनिक बनाने की 20,000 करोड़ रु. की एक परियोजना एक दशक से ज्यादा वक्त से अटकी हुई है.
रक्षा मंत्रालय लगातार अरबों डॉलर के सौदे बगैर किसी होड़ के सार्वजनिक क्षेत्र के हवाले करता जा रहा है. हाल में ऐसे दो सौदे हुए हैं. भारतीय नौसेना के लिए सुंरगों को खोजकर नष्ट करने वाले जलपोत बनाने का 32,000 करोड़ रु. का फायदेमंद ऑर्डर गोवा शिपयार्ड की झोली में गया है. बेड़े की मदद करने वाले पांच जहाजों के लिए नौसेना का एक ऑर्डर हिंदुस्तान शिपयार्ड को मिला.
नवंबर, 2014 में रक्षा मंत्री की कुर्सी संभालने के बाद पर्रीकर ने जल्दी ही अपने मंत्रालय में पसरी समस्याओं का आकलन करने के लिए कई समितियों का गठन किया था. ऐसी आठ समितियों में से चार का वास्ता सीधे या घुमा-फिराकर सरकार के मेक इन इंडिया मिशन से था. ये समितियां सिफारिशों का पुलिंदा लेकर आईं, जिनकी बदौलत फिर निजी क्षेत्र के साथ रणनीतिक भागीदारी की नीतियां बनाई गईं. हालांकि निजी क्षेत्र के कम से कम एक सीईओ इस मॉडल पर सवाल खड़े करते हैं और मानते हैं कि इससे केवल इतना होगा कि सार्वजनिक क्षेत्र के एकाधिकार की जगह निजी क्षेत्र का एकाधिकार आ जाएगा.
वे कहते हैं, ''छोटे वक्त के लिए ये सशस्त्र बलों के लिए फायदेमंद होंगे क्योंकि उन्हें हार्डवेयर की आपूर्ति का एक वैकल्पिक स्रोत मिल जाएगा, पर लंबे वक्त में देश को इसका कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि 49 फीसदी टेक्नोलॉजी इसके बाद भी विदेशी कंपनियों के कब्जे में होगी."
फिर भी कायापलट नामुमकिन नहीं है. मगर मेक इन इंडिया को कामयाब बनाने के लिए डीपीएसयू के कायापलट की जरूरत है. विशेषज्ञ कहते हैं कि 2027 तक 50-60 फीसदी का स्वदेशीकरण आसानी से हासिल किया जा सकता है, मगर तभी जब रक्षा मंत्रालय के नीतिगत सुधारों को उनके तार्किक नतीजे तक ले जाया जाए और उन्हें उनके शब्द और भावना दोनों में लागू किया जाए. सवाल यही है कि ऐसा कब होगा.