जलवायु परिवर्तन/चुनौतियाँ और समाधान/Causes of Climate Change

हाल ही में दुनिया के कई देश भीषण गर्मी की चपेट में हैं। इनमे कनाडा (हीट डोम)अमेरिका और साइप्रस शामिल हैं। सायप्रस के जंगलों में सबसे भीषण आग लगी हुई है, जिस पर काबू पाने के लिए ग्रीस, इटली और ब्रिटैन ने अपने विमान भेजे हैं। कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया में जबरदस्त गर्मी पड़ रही है। हीट वेव के चलते जंगल में आग लगी हुई है। कनाडा के लिटन में 49.6 डिग्री तापमान दर्ज किया गया था जो अब तक का सर्वाधिक तापमान है। वर्ष 2100 तक भारत समेत अमेरिका, कनाडा, जापान, न्यूजीलैंड, रूस और ब्रिटेन जैसे सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएँ जलवायु परिवर्तन के असर से अछूती नहीं रहेंगी। कुछ समय पूर्व कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की एक शोध टीम ने 174 देशों के वर्ष 1960 के बाद जलवायु संबंधी आँकड़ों का अध्ययन किया है। अध्ययन के अनुसार, पृथ्वी पर 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान की स्थिति में विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं के साथ-साथ मानव के अस्तित्व पर भी खतरा उत्पन्न हो जाएगा। इसके अतिरिक्त पिछली सदी से अब तक समुद्र के जल स्तर में भी लगभग 8 इंच की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वहीँ संयुक्त राष्ट्र आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्यालय (UN Office for Disaster Risk Reduction-UNDRR) के अनुसार, भारत को जलवायु परिवर्तन के कारण हुई प्राकृतिक आपदाओं से वर्ष 1998-2017 के बीच की समयावधि के दौरान लगभग 8,000 करोड़ डॉलर की आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा है। यदि पूरी दुनिया की बात की जाए तो इसी समयावधि में तकरीबन 3 लाख करोड़ डॉलर की क्षति हुई है। हाल ही में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क के तत्वावधान में आयोजित COP-25 सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिये विभिन्न दिशा-निर्देश ज़ारी किये गए।       

 

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार इस बात की सम्भावना है कि अगले पांच वर्षों में वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगी। गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर 2015 में किए पैरिस समझौते में तापमान में हो रही वृद्धि को पूर्व औद्योगिक काल से 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे रखने का लक्ष्य रखा गया था| हालांकि वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि अब तक 1.2 डिग्री सेल्सियस तक जा चुकी है| रिपोर्ट के अनुसार 2021 से 2025 के बीच कम से कम एक वर्ष ऐसा होगा जो अब तक तापमान में हो रही वृद्धि के सारे रिकॉर्ड तोड़ देगा, जिसका मतलब है कि वो इतिहास का अब तक का सबसे गर्म वर्ष होगा| रिकॉर्ड के अनुसार ला नीना के बावजूद भी 2020 अब तक का सबसे गर्म वर्ष था, जब तापमान में हो रही औसत वृद्धि 2016 और 2019 के बराबर रिकॉर्ड की गई थी। संयुक्त राष्ट्र की एमिशन गैप रिपोर्ट 2020 के अनुसार यदि तापमान में हो रही वृद्धि इसी तरह जारी रहती है, तो सदी के अंत तक वो वृद्धि 3.2 डिग्री सेल्सियस के पार चली जाएगी। जिसके विनाशकारी परिणाम झेलने होंगे।

 

क्या है जलवायु परिवर्तन?

 

जलवायु परिवर्तन को समझने से पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है कि जलवायु क्या होता है? सामान्यतः जलवायु का आशय किसी दिये गए क्षेत्र में लंबे समय तक औसत मौसम से होता है। अतः जब किसी क्षेत्र विशेष के औसत मौसम में परिवर्तन आता है तो उसे जलवायु परिवर्तन (Climate Change) कहते हैं। जलवायु परिवर्तन को किसी एक स्थान विशेष में भी महसूस किया जा सकता है एवं संपूर्ण विश्व में भी। यदि वर्तमान संदर्भ में बात करें तो यह इसका प्रभाव लगभग संपूर्ण विश्व में देखने को मिल रहा है। पृथ्वी का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक बताते हैं कि पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है। पृथ्वी का तापमान बीते 100 वर्षों में 1 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ गया है। पृथ्वी के तापमान में यह परिवर्तन संख्या की दृष्टि से काफी कम हो सकता है, परंतु इस प्रकार के किसी भी परिवर्तन का मानव जाति पर बड़ा असर हो सकता है। जलवायु परिवर्तन के कुछ प्रभावों को वर्तमान में भी महसूस किया जा सकता है। पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होने से हिमनद पिघल रहे हैं और महासागरों का जल स्तर बढ़ता जा रहा, परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं और कुछ द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ गया है।

 

 

जलवायु परिवर्तन के कारण

 

जलवायु परिवर्तन के कारणों का बेहतर विश्लेषण करने के लिये इसे दो भागों में विभाजित कर सकते हैं।

 

प्राकृतिक गतिविधियाँ 

 

महाद्वीपीय संवहन- सृष्टि के प्रारम्भ में सभी महाद्वीप एक ही बड़े धरातल के रूप में पृथ्वी पर विद्यमान थे, किंतु सागरों के कारण धीरे-धीरे वे एक दूसरे से दूर होते गए और आज उनके अलग-अलग खंड बन गए हैं। महाद्वीपीय संवहन अर्थात महाद्वीपों का खिसकना अब भी जारी है जिसकी वजह से समुद्री धाराएँ तथा हवाएँ प्रभावित होती हैं और इनका सीधा प्रभाव पृथ्वी की जलवायु पर पड़ता है। हिमालय पर्वत की श्रृंखला प्रतिवर्ष एक मिलीमीटर की दर से ऊँची हो रही है, जिसका मुख्य कारण भारतीय उपखंड का धीरे-धीरे एशियाई महाद्वीप की ओर खिसकना माना जाता है। 

 

ज्वालामुखी विस्फोट- ज्वालामुखी विस्फोट होने पर बड़ी मात्रा में विभिन्न गैसें जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, जलवाष्प आदि तथा धूलकण वायुमंडल में उत्सर्जित होते हैं, जो कि वायुमंडल की ऊपरी परत, समतापमंडल में जाकर फैल जाते हैं तथा पृथ्वी पर आने वाले सूर्य प्रकाश की मात्रा घटा देते हैं। जिससे पृथ्वी का तापमान कम हो जाता है। एक अनुमान के अनुसार, प्रतिवर्ष लगभग 100 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड गैस ज्वालामुखी विस्फोट द्वारा वायुमंडल में फैल जाती है। वर्ष 1816 में इंग्लैंड, अमेरिका तथा पश्चिमी यूरोपीय देशों में ग्रीष्म ऋतु में जो अचानक ठंड आई थी, जिसे ‘‘Killing Summer Frost’’ कहा गया, उसका कारण वर्ष 1815 में इंडोनेशिया में हुए अनेक ज्वालामुखी विस्फोटों को माना जाता है। 

 

पृथ्वी का झुकाव- पृथ्वी के झुकाव के कारण ऋतुओं में परिवर्तन होता है। अधिक झुकाव अर्थात अधिक गर्मी तथा अधिक सर्दी और कम झुकाव अर्थात कम गर्मी तथा कम सर्दी का मौसम। इस प्रकार पृथ्वी के झुकाव के कारण जलवायु प्रभावित होती है।

 

समुद्री धाराएँ- जलवायु को संतुलित रखने में सागरों का बड़ा योगदान रहता है। पृथ्वी के 71% भाग में समुद्र व्याप्त है, जो कि वातावरण तथा ज़मीन की तुलना में दोगुना सूर्य का प्रकाश का अवशोषण करते हैं। सागरों को कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा सिंक कहा जाता है। वायुमंडल की अपेक्षा 50 गुना अधिक कार्बन डाइऑक्साइड गैस समुद्र में होती है। समुद्री बहाव में बदलाव आने से जलवायु प्रभावित होती है।

 

2 मानवीय गतिविधियाँ

 

शहरीकरण- उन्नीसवीं सदी में हुई औद्योगिक क्रांति की ओर सभी का ध्यान आकर्षित हुआ। रोज़गार पाने के लिये गाँवों में स्थित आबादी शहरों की तरफ प्रस्थान करने लगी और शहरों का आकार दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा। मुंबई, कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई जैसे महानगरों में उनकी क्षमता से कई गुना अधिक आबादी निवास कर रही है, जिससे शहरों के संसाधनों का असीमित दोहन हो रहा है। जैसे-जैसे शहर बढ़ रहे हैं, वहाँ पर उपलब्ध भू-भाग दिन-प्रतिदिन ऊँची-ऊँची इमारतों से ढँकता जा रहा है, जिससे उस स्थान की जल संवर्धन क्षमता कम हो रही है तथा बारिश के पानी से प्राप्त होने वाली शीतलता में भी कमी हो रही है, जिससे वहाँ के पर्यावरण तथा जलवायु पर निरंतर प्रभाव पड़ रहा है।

 

औद्योगिकीकरण- जलवायु परिवर्तन में औद्योगिकीकरण की बड़ी भूमिका है। विभिन्न प्रकार की मिलें वातावरण में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड तथा अनेक प्रकार की अन्य ज़हरीली गैसें और धूलकण हवा में छोड़ती हैं, जो वायुमंडल में काफी वर्षों तक विद्यमान रहती है। यह ग्रीन हाउस प्रभाव, ओज़ोन परत का क्षरण तथा भूमंडलीय तापमान में वृद्धि जैसी समस्याओं का कारण बनते हैं। वायु, जल एवं भूमि प्रदूषण भी औद्योगिकीकरण की ही देन हैं।

 

वनोन्मूलन- निरंतर बढ़ती हुई आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये वृक्ष काटे जा रहे हैं। आवास, खेती, लकड़ी और अन्य वन संसाधनों की चाह में वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, जिससे पृथ्वी का हरित क्षेत्र तेजी से घट रहा है और साथ ही जलवायु के परिवर्तन में तेजी आ रही है। 

 

रासायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों का प्रयोग- पिछले कुछ दशकों में रासायनिक उर्वरकों की माँग इतनी तेजी से बढ़ी है कि आज विश्व भर में 1000 से भी अधिक प्रकार की कीटनाशी उपलब्ध हैं। जैसे-जैसे इनका उपयोग बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे वायु, जल तथा भूमि में इनकी मात्रा भी बढ़ती जा रही है, जो कि पर्यावरण को निरंतर प्रदूषित कर घातक स्थिति में पहुँचा रहे हैं।

 

जलवायु परिवर्तन से प्रभाव 

 

  • वर्षा पर प्रभाव- जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप दुनिया के मानसूनी क्षेत्रों में वर्षा में वृद्धि होगी जिससे बाढ़, भूस्खलन तथा भूमि अपरदन जैसी समस्याएँ पैदा होंगी। जल की गुणवत्ता में गिरावट आएगी तथा पीने योग्य जल की आपूर्ति पर गंभीर प्रभाव पड़ेंगे। जहाँ तक भारत का प्रश्न है, मध्य तथा उत्तरी भारत में कम वर्षा होगी जबकि इसके विपरीत देश के पूर्वोत्तर तथा दक्षिण-पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा होगी। परिणामस्वरूप वर्षा जल की कमी से मध्य तथा उत्तरी भारत में सूखे जैसी स्थिति होगी जबकि पूर्वोत्तर तथा दक्षिण पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा के कारण बाढ़ जैसी समस्या होगी।
  • समुद्री जल स्तर पर प्रभाव-जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप ग्लेशियरों के पिघलने के कारण विश्व का औसत समुद्री जल स्तर इक्कीसवीं शताब्दी के अंत तक 9 से 88 सेमी. तक बढ़ने की संभावना  है, जिससे दुनिया की आधी से अधिक आबादी जो समुद्र से 60 कि.मी. की दूरी पर रहती है, पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप भारत के उड़ीसा, आँध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात और पश्चिम बंगाल राज्यों के तटीय क्षेत्र जलमग्नता के शिकार होंगे। परिणामस्वरूप आसपास के गाँवों व शहरों में 10 करोड़ से भी अधिक लोग विस्थापित होंगे जबकि समुद्र में जल स्तर की वृद्धि के परिणामस्वरूप भारत के लक्षद्वीप तथा अंडमान निकोबार द्वीपों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। समुद्र का जल स्तर बढ़ने से मीठे जल के स्रोत दूषित होंगे परिणामस्वरूप पीने के पानी की समस्या होगी।
  • कृषि पर प्रभाव- जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कृषि पैदावार पर पड़ेगा। संयुक्त राज्य अमरीका में फसलों की उत्पादकता में कमी आएगी जबकि दूसरी तरफ उत्तरी तथा पूर्वी अफ्रीका, मध्य पूर्व देशों, भारत, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया तथा मैक्सिको में गर्मी तथा नमी के कारण फसलों की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी होगी। वर्षा जल की उपलब्धता के आधार पर धान के क्षेत्रफल में वृद्धि होगी। भारत में जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप गन्ना, मक्का, ज्वार, बाजरा तथा रागी जैसी फसलों की उत्पादकता दर में वृद्धि होगी जबकि इसके विपरीत मुख्य फसलों जैसे गेहूँ, धान तथा जौ की उपज में गिरावट दर्ज होगी। आलू के उत्पादन में भी अभूतपूर्व गिरावट दर्ज होगी।
  • जैव विविधता पर प्रभाव- जलवायु परिवर्तन का प्रभाव जैवविविधता पर भी पड़ेगा। किसी भी प्रजाति को अनुकूलन हेतु समय की आवश्यकता होती है। वातावरण में अचानक परिवर्तन से अनुकूलन के प्रभाव में उसकी मृत्यु हो जाएगी। जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव समुद्र की तटीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली दलदली क्षेत्र की वनस्पतियों पर पड़ेगा जो तट को स्थिरता प्रदान करने के साथ-साथ समुद्री जीवों के प्रजनन  का आदर्श स्थल भी होती हैं। दलदली वन जिन्हें ज्वारीय वन भी कहा जाता है, तटीय क्षेत्रों को समुद्री तूफानों में रक्षा करने का भी कार्य करते हैं। जैव-विविधता क्षरण के परिणामस्वरूप पारिस्थितिक असंतुलन का खतरा बढ़ेगा।
  • मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव- जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर भी पड़ेगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु में उष्णता के कारण श्वास तथा हृदय संबंधी  बीमारियों में वृद्धि होगी। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप न सिर्फ रोगाणुओं में बढ़ोत्तरी होगी अपितु इनकी नई प्रजातियों की भी उत्पत्ति होगी जिसके परिणामस्वरूप फसलों की उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।  मानव स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते एक बड़ी आबादी विस्थापित होगी जो ‘पर्यावरणीय शरणार्थी’ कहलाएगी। इससे स्वास्थ्य संबंधी और भी समस्याएँ पैदा होंगी।
  • हीटवेव का बढ़ना
  • अटलांटिक महासागर में आने वाले उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के बढ़ने की संभावना है।
  • अफ्रीका के सहेल और ऑस्ट्रेलिया में सामान्य से ज्यादा बारिश होने की सम्भावना है।
  • उत्तरी अमेरिका के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में सूखा पड़ने की सम्भावना कहीं अधिक है।
  • अधिक मात्रा में बर्फ का पिघलना और समुद्र के जल स्तर में वृद्धि।
  • मौसम की चरम घटनाओं का और विनाशकारी होना जिसका असर खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण और सतत विकास पर पड़ेगा।
  • आपदाओं के चलते दुनियाभर में 3 करोड़ से ज्यादा लोगों को अपना घर बार छोड़ना पड़ा है। 2020 में ही जलवायु से जुड़ी आपदाओं जैसे बाढ़, सूखा और तूफान के कारण 38.6 लाख भारतीयों को अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा है।
  • जलवायु परिवर्तन के कारण अंटार्कटिका में आइस शेल्फ से टूट कर दुनिया का सबसे बड़ा हिमखंड (A-76) अलग हुआ है|
  • ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन के चलते समताप मंडल (स्ट्रेटोस्फियर) 400 मीटर तक सिकुड़ चुका है।
  • जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक 94 फीसदी प्रवाल भित्तियां समाप्त हो जाएंगी।
  • जलवायु परिवर्तन और तापमान में हो रही वृद्धि के चलते दुनिया भर में ग्लेशियर बड़ी तेजी से पिघल रहे हैं जिसका असर पृथ्वी की धुरी पर पड़ रहा है और उसके झुकाव में वृद्धि हो रही है।
  • यदि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जरुरी कदम न उठाए गए तो 2050 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को जीडीपी के 35.1 फीसदी तक का नुकसान हो सकता है|
  • इस प्रकार से यदि वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को जल्द से जल्द नहीं रोका गया तो क्लाइमेट टिपिंग पॉइंट के विनाशकारी परिणाम सामने आएंगे।
  • गौरतलब है कि टिप्पिंग पॉइंट वो सीमा हैं, जिसपर पहुंचने के बाद जलवायु परिवर्तन को वापस अपनी पूर्व अवस्था में नहीं लाया जा सकता। जर्नल नेचर में छपे एक शोध के अनुसार अब तक नौ टिप्पिंग पॉइंट सक्रिय हो चुके हैं जिनमें –
  • अमेजन वर्षावन
  • आर्कटिक समुद्री बर्फ
  • अटलांटिक सर्कुलेशन
  • उत्तर के जंगल (बोरियल वन)
  • कोरल रीफ्स
  • ग्रीनलैंड बर्फ की चादर
  • परमाफ्रॉस्ट
  • पश्चिम अंटार्कटिक बर्फ की चादर
  • विल्क्स बेसिन, शामिल हैं।

 

तापमान में वृद्धि जितना ज्यादा होगी, टिपिंग पॉइंट को रोकने के लिए हमारे पास उतना ही कम समय होगा। गतवर्ष हमारे लिए एक सबक है जिसमे दुनिया भर ने मौसम की चरम घटनाओं जैसे बाढ़, सूखा, तूफान, चक्रवात आदि का प्रकोप झेला था। जिसमें अमेरिका में आया हरिकेन, भारत में आए चक्रवात, ऑस्ट्रेलिया और आर्कटिक में हीटवेव, अफ्रीका और एशिया के बड़े हिस्सों में आई बाढ़ और अमेरिका के जंगलों में लगी आग प्रमुख घटनाएं थी। वर्ष 2021 की यूरोप और अमेरिका महाद्वीप की हीट वेव ने साफ़ संकेत दे दिए हैं की जलवायु परिवर्तन का मामला अब एक सीमा से आगे बढ़ चुका है और यदि इसके लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए तो पूरी दुनिया को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।

 

 

जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु वैश्विक प्रयास

 

  • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन, इसके प्रभाव और भविष्य के संभावित जोखिमों के साथ-साथ अनुकूलन तथा जलवायु परिवर्तन को कम करने हेतु नीति निर्माताओं को रणनीति बनाने के लिये नियमित वैज्ञानिक आकलन प्रदान करना है। IPCC आकलन सभी स्तरों पर सरकारों को वैज्ञानिक सूचनाएँ प्रदान करता है जिसका इस्तेमाल जलवायु के प्रति उदार नीति विकसित करने के लिये किया जा सकता है।
  • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल’ (IPCC) ने अपनी छठी रिपोर्ट का प्रथम भाग प्रस्तुत किया है। इस रिपोर्ट का शीर्षक ‘क्लाइमेट चेंज 2021: द फिजिकल साइंस बेसिस’ है।

 

रिपोर्ट के मुख्य बिंदु

 

  • रिपोर्ट के अनुसार, पृथ्वी की जलवायु इतनी उष्ण हो रही है कि लगभग एक दशक में तापमान शायद उस स्तर तक पहुँच जाएगा, जिस स्तर तक वैश्विक नेता रोकने की माँग कर रहे हैं।
  • रिपोर्ट में कहा गया है, विश्व विगत कुछ पूर्वानुमानों की तुलना में वर्ष 2030 के दशक में वैश्विक उष्मन 1.5 डिग्री सेल्सियस के निशान को पार कर जाएगा। आँकड़ों से ज्ञात होता है कि हाल के वर्षों में उष्मन में तेज़ी आई है।
  • यदि कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों में व्यापक कटौती नहीं की गई तो तापमान पूर्व-औद्योगिक कालखंड से 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाएगा, जिसके कारण हीट वेव्स, सूखे और तीव्र वर्षा जैसी घटनाएँ परिलक्षित होंगी। 
  • जलवायु में हाल के परिवर्तन व्यापक और तीव्र हैं तथा हम जिन परिवर्तनों का अनुभव करते हैं, उनमें और अधिक वृद्धि की संभावना है।
  • वैश्विक उष्मन के कारण समुद्र स्तर में वृद्धि, ग्लेशियरों की कमी, सूखा, बाढ़ और तूफान जैसी चरम परिघटनाएँ तीव्र हो चुकी हैं।
  • उष्णकटिबंधीय चक्रवात की आवृत्ति में तेज़ी देखी जा रही है, वहीं आर्कटिक समुद्री बर्फ और पर्माफ्रॉस्ट कम हो रहा है।

 

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अपरिवर्तनीय नुकसान

 

  • जलवायु परिवर्तन के अनेक नकारात्मक प्रभाव होंगे, जैसे- हिम सतह का कम होना, समुद्र के जलस्तर व महासागरों की अम्लीयता में वृद्धि।
  • इस सदी के मध्य तक समुद्र स्तर में 15 से 30 सेमी. की वृद्धि हो सकती है।
  • पृथ्वी पर होने वाले लगभग सभी उष्मन के लिये कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी गैसों के उत्सर्जन को ज़िम्मेदार ठहराया गया है।

 

भविष्य के पाँच परिदृश्य

 

  • रिपोर्ट में भविष्य के पाँच अलग-अलग परिदृश्यों का वर्णन किया गया है, जो इस तथ्य पर आधारित हैं कि विश्व कार्बन उत्सर्जन को कितना कम किया जा सकता है-
  • अविश्वसनीय रूप से बृहत् और त्वरित प्रदूषण कटौती वाला भविष्य;
  • तीव्र प्रदूषण में कटौती किंतु  बृहत् पैमाने पर नहीं;
  • मध्यम उत्सर्जन वाला परिदृश्य;
  • प्रदूषण में कमी करने वाली मौजूदा योजनाएँ जारी रहें;
  • भविष्य में कार्बन प्रदूषण में निरंतर वृद्धि।

 

प्रभाव 

 

  • वैज्ञानिक बार-बार एक महत्त्वपूर्ण संदेश को दोहराते रहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव एक सीमा के बाद शुरू नहीं होंगे, बल्कि 2 डिग्री  सेल्सियस  उष्मन  के अनुमानित  प्रभाव  1.5 डिग्री  सेल्सियस पर भी मौजूद होंगे और इन्हें महसूस भी किया जा रहा है।लेकिन  उष्मन  में  और  वृद्धि  होने से स्थिति अधिक बिगड़ सकती है।
  • वैश्विक उष्मन की हर अतिरिक्त मात्रा के साथ जलवायु में बड़े परिवर्तन होंगे।
  • 2 डिग्री के उष्मन पर चरम गर्मी, कृषि और मानव स्वास्थ्य के महत्त्वपूर्ण सहिष्णुता सीमा तक पहुँच जाएगी।
  • वैश्विक स्तर पर दैनिक वर्षा की घटनाएँ उष्मन के प्रत्येक अतिरिक्त डिग्री सेल्सियस के साथ लगभग 7 प्रतिशत तेज़ होंगी।

 

भारत की स्थिति

 

  • हिंद महासागर, अन्य महासागरों की तुलना में उच्च दर से गर्म हो रहा है, जिसके कारण हीट वेव्स और बाढ़ में वृद्धि होगी।
  • वर्तमान वैश्विक उष्मन प्रवृत्तियों के कारण भारत में वार्षिक औसत वर्षा में वृद्धि होने की संभावना है तथा आने वाले दशकों में दक्षिणी भारत में अधिक तीव्र बारिश की संभावना है।
  • समुद्र के गर्म होने से समुद्र स्तर में वृद्धि होगी, जिससे तटीय क्षेत्रों में बार-बार और गंभीर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
  • इसके अतिरिक्त, भारत की 7,517 किलोमीटर की लंबी तटरेखा को बढ़ते जलस्तर से अन्य महत्त्वपूर्ण खतरों का सामना करना पड़ेगा।
  • चेन्नई, कोच्चि, कोलकाता, मुंबई, सूरत और विशाखापत्तनम के बंदरगाह शहरों में समुद्र के जलस्तर में 50 सेमी की वृद्धि होने पर 28.6 मिलियन नागरिक तटीय बाढ़ से प्रभावित होंगे।
  • भारत और दक्षिण एशिया में मानसून की चरम सीमा बढ़ने तथा कम तीव्र वर्षा वाले दिनों के आवृत्ति के बढ़ने की संभावना है।
  • 21वीं सदी के अंत तक भारत में मानसून लंबी अवधि का होने का भी संकेत है। साथ ही, दक्षिण एशियाई मानसून वर्षा में वृद्धि का भी अनुमान है।

 

रिपोर्ट के नए अनुमान

 

  • आई.पी.सी.सी. कई वर्षों से तत्काल अवधि में कहीं अधिक जलवायु कार्रवाई का आह्वान कर रहा है। इसने पहली बार यह भी जवाब देने की कोशिश की है कि तत्काल कार्रवाई के लाभ परिलक्षित होने से पूर्व कितना समय लगेगा।
  • सरकारों के सामने एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है कि क्या निकट भविष्य में उत्सर्जन में कटौती के कोई दृश्यमान और ठोस परिणाम संभव हैं।
  • छठी आकलन रिपोर्ट ने उक्त प्रश्न का व्यापक उत्तर नहीं दिया है, लेकिन यह सुझाव दिया है कि महत्त्वाकांक्षी उत्सर्जन में कमी के परिणाम 10 से 20 वर्षों में दिखने शुरू हो जाएँगे।
  • रिपोर्ट में एक नया तत्त्व ‘कंपाउंड इवेंट’ पर चर्चा है, जिसके अंतर्गत दो या दो से अधिक जलवायु परिवर्तन-प्रेरित घटनाएँ एक के बाद एक हो रही हैं तथा एक दूसरे को ‘ट्रिगर’ कर रही हैं या एक साथ घटित हो रही हैं।
  • उत्तराखंड में हाल की घटना, जिसमें भारी वर्षा, भूस्खलन, हिमस्खलन और बाढ़ शामिल है, कंपाउंड इवेंट का एक अच्छा उदाहरण है।
  • ‘ग्लेशियल लेक आउटब्रस्ट’ हिमालय क्षेत्र में एक परिचित घटना है, यह भी एक कंपाउंड इवेंट का एक उदाहरण है, क्योंकि यह भारी वर्षा और बाढ़ के करण होता है।
  • कंपाउंड इवेंट कई गुना घातक हो सकते हैं। यदि घटनाएँ एक साथ होती हैं, तो वे एक-दूसरे के प्रभाव को बढ़ाते हुए एक-दूसरे को ‘फीड’ करती हैं। इस कारण समुदायों को संभलने का बेहद कम समय मिल पाता है।
  • वैश्विक उष्मन के बढ़ने के साथ अतीत और वर्तमान जलवायु में कम संभावित दुर्लभ और कंपाउंड इवेंट बार-बार होंगे।

 

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC)

 

  • प्रत्येक 6 या 7 वर्षों में ‘जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल’ (IPCC) आकलन रिपोर्ट तैयार करता है, जो पृथ्वी की जलवायु का सबसे व्यापक वैज्ञानिक मूल्यांकन होता है।
  • इसकी स्थापना विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा वर्ष 1988 में की गई थी।
  • आई.पी.सी.सी. स्वयं वैज्ञानिक अनुसंधान में संलग्न नहीं है, बल्कि यह वैश्विक स्तर के वैज्ञानिकों से जलवायु परिवर्तन से संबंधित सभी प्रासंगिक वैज्ञानिक अध्ययन के तार्किक निष्कर्ष के लिये आग्रह करता है।
  • आकलन रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन के बारे में सबसे व्यापक रूप से स्वीकृत वैज्ञानिक राय होती है।
  • ये जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये सरकारी नीतियों का आधार बनाते हैं, तथा अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन वार्ता के लिये वैज्ञानिक आधार भी प्रदान करते हैं।
  • अब तक पाँच आकलन रिपोर्ट जारी की गई हैं। प्रथम रिपोर्ट वर्ष 1990 में जारी की गई थी। पाँचवीं आकलन रिपोर्ट वर्ष 2014 में पेरिस में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के लिये जारी की गई थी।
  • हाल में, आई.पी.सी.सी. ने अपनी छठी आकलन रिपोर्ट (AR 6) का पहला भाग जारी किया है, जबकि बाकी के दो हिस्से आगामी वर्ष जारी किये जाएँगे।
  • आई.पी.सी.सी. रिपोर्ट वैज्ञानिकों के तीन कार्य समूहों द्वारा तैयार जी जाती है-
  1. वर्किंग ग्रुप- I -  यह जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक आधार से संबंधित है, जो रिपोर्ट हाल में जारी हुई है।
  2. वर्किंग ग्रुप- II - संभावित प्रभावों, कमज़ोरियों और अनुकूलन के मुद्दों को संबोधित करता है।
  3. वर्किंग ग्रुप- III- जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये किये जाने वाले कार्यों से संबंधित है।

 

  • संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (UNFCCC) एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। जिसका उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है। वर्ष 1995 से लगातार UNFCCC की वार्षिक बैठकों का आयोजन किया जाता है। इसके तहत ही वर्ष 1997 में बहुचर्चित क्योटो समझौता (Kyoto Protocol) हुआ और विकसित देशों (एनेक्स-1 में शामिल देश) द्वारा ग्रीनहाउस गैसों को नियंत्रित करने के लिये लक्ष्य तय किया गया। क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 40 औद्योगिक देशों को अलग सूची एनेक्स-1 में रखा गया है। 
  • पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य के साथ संपन्न 32 पृष्ठों एवं 29 लेखों वाले पेरिस समझौते को ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिये एक ऐतिहासिक समझौते के रूप में मान्यता प्राप्त है।
  • COP-25 सम्मेलन में लगभग 200 देशों के प्रतिनिधियों ने उन गरीब देशों की मदद करने के लिये एक घोषणा का समर्थन किया जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से जूझ रहे हैं। इसमें पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते के लक्ष्यों के अनुरूप पृथ्वी पर वैश्विक तापन के लिये उत्तरदायी ग्रीनहाउस गैसों में कटौती के लिये "तत्काल आवश्यकता" का आह्वान किया गया।

 

 

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